बुधवार, 3 मार्च 2021

वसंत के रंग समाज के संग

 

वसंत के रंग समाज के संग

बसंत पंचमी को  हमारे समाज में बहुत ही शुभ मुहूर्त साझा गया है। प्राय: हर समाज में इस नवागुत शुभ मुहूर्त में बहुत से चीजों जैसे संस्कार कार्य, गृह प्रवेश, विद्या किये जाने हेतु और शादी विवाह आदि के अनेक रस्म की प्रारम्भ बसंत पंचमी के अवसर पर किये जाते है| वसंत ऋतु माह को पुराणों में भी श्रेयस्कर माना गया है।

विद्या की देवी सरस्वती का जन्मदिवस भी वसंत पंचमी के दिन वसंत ऋतु के आगमन का भी प्रतीक है। वसंत ऋतु का पर्व भारत के साथ-साथ अनेक देशोँ जैसे  बांग्लादेश और नेपाल में भी धूमधाम से मनाया जाता है, साथ ही दुनिया में जहां भी जाकर भारतीय बसे हैं, वहा वसंत ऋतु पर्व को पूरे विधि-विधान से मनाते हैं। भारतवर्ष में  पूर्व में स्थित प्रदेशों बंगाल, आसाम और खासकर बिहार में इसका बहुत ही महत्व है, इन प्रान्तों में लोग माँ सरस्वती के स्थापना और पूजन के साथ इनका विसर्जन आदि के कई कार्यक्रम हर्ष-उल्लास के साथ मानते है|  वसंत ऋतु का पर्व माँ शारदा  की व्रत, पूजा और उनकी असीम अनुकम्पा प्राप्त किये जाने का भी अवसर है। वसंत ऋतु में पूर्वजो का मना है कि वसंत ऋतु के दिन पीले वस्त्र पहनने चाहिए। वसंत ऋतु पर्व का  महत्व का महिमा पौराणिक ग्रंथो, पुराणों और अनेक धार्मिक ग्रंथों में विस्तारपूर्वक किया गया है। इसका उलेख्या  देवी भागवत में भी मिलता है कि माघ शुक्ल पक्ष की पंचमी को ही संगीत, काव्य, कला, शिल्प, रस, छंद, शब्द शक्ति को प्राप्त हुई थी।

पौराणिक ग्रंथों के अनुसार वसंत पंचमी पर पीला रंग के महत्व वर्णित है और इस दिन पीला रंग के वस्त्र और अन्य चीजे सामाजिक जीवन में उपयोग की जाती है| क्योंकि इस पर्व के बाद शुरू होने वाली बसंत ऋतु में फसलें पकने लगती हैं और पीले सरसों के फूल भी खिलने लगते हैं। वसंत ऋतु त्योहार पर पीले रंग का महत्व इसलिए कहा जाता है क्योंकि बसंत का पीला रंग समृद्धि, ऊर्जा, प्रकाश और आशावाद का प्रतीक है। इसलिए इस दिन पीले रंग के कपड़े पहनते हैं, साथ हे लोग घरों  में पीली द्रब्य पदार्थो  के खाद्य व्  व्यंजन बनाते हैं।


मनुष्य के जीवन में उमंगे भरती, प्रकृति और मनुष्य को जोड़ने वाली ऋतु है वसंत ऋतु कड़कड़ाती ठंड के अंतिम चरण में जाने के बाद वसंत ऋतु का आगमन प्रकृति को वासंती रंग से सराबोर कर जाता है। वसंत ऋतु के आगमन से आम के पेड़ों पर बौर आने भी शुरू हो जाते है| हिंदू संस्कृति में इस दिन आम के बौर और ऊल्लू का देखना भी शुभ माना जाता है| सारी धरती हरे भरे हरियाली से ढकी सरसों के खेत पीले फूलो से ढके और गेंहू के बाल पके खेतों में लहलहाते है| गुलाबी ठंड, वसंत पंचमी ऋतुओं के उसी सुखद परिवर्तन का एक रुप है।

 

हमारा हैहयवंश क्षत्रिय समाज में भी पुरातन काल से आज भी अधिकतर घर – परिवार में वसंत ऋतु के आगमन का स्वागत बड़े ही हर्ष-उल्लास के साथ मनाया जाता है| इस दिन सभी घर के लोग सुबह सुबह ही स्नान ध्यान के उपरांत पीले वस्त्रों को धारण करते है और माँ सरस्वती, शारदा और भगवन शंकर के मंदिर में पूजा अर्चना भी करते है| अधिकतर परिवारों में इस दिन अनेक शुभ कार्यों का प्रारम्भ करते है|

पौराणिक मान्यता

सृष्टि की रचना के समय ब्रह्माजी ने महसूस किया कि जीवों की सर्जन के बाद भी चारों ओर मौन छाया रहता है। उन्होंने विष्णुजी से अनुमति लेकर अपने कमंडल से जल छिड़का, जिससे पृथ्वी पर एक अद्भुत शक्ति प्रकट हुई। छह भुजाओं वाली इस शक्ति रूप स्त्री के एक हाथ में पुस्तक, दूसरे में पुष्प, तीसरे और चौथे हाथ में कमंडल और बाकी के दो हाथों में वीणा और माला थी। ब्रह्माजी ने देवी से वीणा बजाने का अनुरोध किया। जैसे ही देवी ने वीणा का मधुरनाद किया, चारों ओर ज्ञान और उत्सव का वातावरण फैल गया, वेदमंत्र गूंज उठे। ऋषियों की अंतःचेतना उन स्वरों को सुनकर झूम उठी। ज्ञान की जो लहरियां व्याप्त हुईं, उन्हें ऋषिचेतना ने संचित कर लिया। इसी दिन को बंसत पंचमी के रूप में मनाया जाता है। 

हम हैहयवंशी में लेकर आये यह मौसम की बहार
आओ मिलकर मनाये यह बसंत ऋतू का त्योहार
इस बंसंत सभी भूले बिछड़े जोड़े हैहयवंश का नाम

आओ मिलकर मनाये यह बसंत ऋतू का त्योहार
इस बसन्त से हम सब जाने जाय बस एक नाम

 

वसंत ऋतु के पर्व का आज के परिवेश में हमारे हैहयवंश  समाज में इसके उपयोग और महता और भी अधिक बन जाती है, हम क्षत्रिय वंश से सम्बन्ध रखने के नाते हमें शिक्षा का संकल्प लेना चाहिए जिससे ज्ञान और बुद्धी का समावेश हमारे क्षत्रिय्ता के सौर्य को स्थापित करने में सहयोगी हो| आज हमारा समाज इसी कारण से पीछे है कि हमारे वंश के लोगो ने शारीरिक श्रम और साहस को तो बनाये रखा परन्तु शिक्षा और सामाजिक ज्ञान के अभाव में हम पीछे होते गए और अन्य समाज हमसे  आगे हो गए|

 

वसंत पंचमी पर्व का धार्मिक एवं वैज्ञानिक महत्व
वसंत ऋतु में पीला रंग सादगी और निर्मलता प्रदान करता है

हिंदू संस्कृति में हर रंग की अपनी खासियत है जो हमारे जीवन पर गहरा असर डालती है। हिन्दू धर्म में पीले रंग को शुभ माना गया है। पीला रंग शुद्ध और सात्विक प्रवृत्ति का प्रतीक माना जाता है। यह सादगी और निर्मलता को भी दर्शाता है। पीला रंग भारतीय परंपरा में शुभ का प्रतीक माना गया है।

1.     वसंत ऋतु का पीला रंग दिल और आत्मा से जोड़ता है

फेंगशुई ने भी इसे आत्मिक रंग अर्थात आत्मा या अध्यात्म से जोड़ने वाला रंग बताया है। फेंगशुई के सिद्धांत ऊर्जा पर आधारित हैं। पीला रंग सूर्य के प्रकाश का है यानी यह ऊष्मा शक्ति का प्रतीक है। पीला रंग हमें तारतम्यता, संतुलन, पूर्णता और एकाग्रता प्रदान करता है। 

3. वसंत ऋतु में मनुष्य का मष्तिक अत्यंत शांत और सक्रिय रहता है  

भारतीय सभ्यता में ऐसी मान्यता है कि यह रंग डिप्रेशन दूर करने में कारगर है। पीला रंग थेरपी के लिए भी उपयोगी है| यह उत्साह बढ़ाता है और दिमाग सक्रिय करता है। जो  दिमाग में उठने वाली तरंगें खुशी का एहसास कराती हैं। वसंत ऋतु में मनुष्य का  आत्मविश्वास में भी वृद्धि करता है। हम पीले परिधान पहनते हैं तो सूर्य की किरणें प्रत्यक्ष रूप स दिमाग पर असर डालती हैं। 

वसन्त रुतु के आगमन उपरांत ही हिंदू धर्म में मनाया जाए वाला होली का त्यौहार पुरे देश में मनाया जाता है| लोक राग-रंग का वसंत पर्व लोक गीत और, संगीत  का वाहक है|

पीले फूलों की वर्षा, शरद ऋतुओँ की फुहार,
सूरज की चमकीले किरणे, खुशियों की बहार,
पीले चन्दन की खुशबु, अपनों का सारा प्यार,
मुबारक हो सबको, बसंत पंचमी का त्योहार।

बुधवार, 6 जनवरी 2021

सामजिक चरित्र का निर्माण

 

 

सामजिक चरित्र के आवश्यकता 

किसी भी समाज के संगठन एवं सफल निर्माण और क्रियानावन के लिए समाज में  एक उच्च चरित्र का होना आवश्यक है| सामाजिक चरित्र किसी भी समाज के लिए एक स्थाई  और सुद्रिढ चरित्र है। सामाजिक संरचना के हम सभी सहभागी और प्रतिभागी है| हमारी ब्यक्तिगत चरित्र ही सामाजिक चरित्र को चरितार्थ करती है अत: सामाजिक चरित्र ही समाज की आधारशिला है। यही वह गुण है जो सर्व समाज  में समाज को एक सम्मानजनक स्थान व् पहचान दिलाता है। हमारी  ब्यक्तिगत चरित्र  ही समाजिक चरित्र का भी  पर्यायवाची है। सामाजिक चरित्र के निर्माण के लिए हमारे बहुत से ब्यक्तिगत चीजे जैसे शिक्षा, संस्कार और कार्य – ब्यवहार, सामाजिक जागरूपता, अच्छाई-बुरे का ज्ञान आदि  अनिवार्य  है। जिसमे हमारे ब्यक्तिगत संस्कार,शिक्षा और ब्याक्तितव का प्रमुख स्थान है। सामाजिक ज्ञान और शिक्षा चरित्र निर्माण का प्रमुख साधन है वही संस्कार सामाजिक समूह को एक सूत्र में बाधने और संगठित करने का साधन भी है| सामजिक चरित्र व्यक्तिगत चरित्र पर पूर्ण रूप से  निर्भर है। समाज व्यक्तियों के मिलाने और जुडने से मिलकर बनता है, इसलिए व्यक्ति के प्रत्येक क्रियाकलाप का सीधा प्रभाव समाज पर पड़ता है। अतः उसकी अच्छाइयों और बुराइयां दोनों ही समाज के निर्माण में अहम महत्व रखता है| व्यक्ति के चरित्र निर्माण में उसका परिहवेश(रहन-सहन) और स्वभाव का विशेष महत्त्व होता है| जबकि स्वभाव का निर्माण संस्कारों से होता है। ये संस्कार ही होते है जो मनुष्य के जीवन को सुखी, संतोषप्रद और अनुशासित बनाते है। संस्कार निर्माण एक लम्बी प्रक्रिया है जो मनुष्य के को जीवन उपरांत  अपने वातावरण खासकर परिवार और आस-पास के वातावरण  से शुरू होकर समाज में हो रही गतिविधियों से प्राप्त होती है| यही संस्कार परिमार्जित होकर चरित्र की विशषताओं का रूप धारण करते रहते है। संस्कारों पर परिवेश, अभ्यास, आत्मावलोकन एवं स्वम् समाज का महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। शिक्षा संस्कारों को सुध्रिंड रूप से एवं सुन्दर व् स्वस्थ बनाने का मुख्य साधन है।

शिक्षा का अर्थ सिर्फ जीविकापार्जन या नौकरी के लिए नहीं करना है और नहीं केवल डिग्री प्राप्त  करने के लिए बल्कि शिक्षा का सही अर्थ अच्छाई और बुराईयों के  ज्ञान के साथ हमें जीवन जीने की कला और जागरूपता का साधन भी देता है| सामजिक  ज्ञान और शिक्षा संस्कार की जननी है, यह मात्र अतिशयोक्ती नहीं है| सामाजिक  शिक्षा एक ऐसा साधन है, जिसके माध्यम से मनुष्य ज्ञान द्वारा  अच्छाई और बुराईयोंमें अंतर के साथ ब्यवहारिक संस्कार और सभ्यता सिखाता है| आवश्यक शिक्षा हमें गुरुकुल (विद्यालय) के गुरुजनों के सानिध्य और ज्ञान से प्राप्त होती है जिससे हमें यही ज्ञान और जीवन के अनुभव संस्कार को बनाने में सहायक होते है| ब्यक्ति के सामाजिक ज्ञान  और शिक्षा उसके कार्यों एवं सोच का सीधा प्रभाव समाज के निर्माण पर पड़ता है| ऐसे में शिक्षा की भूमिका किसी भी समाज के लिये महत्वपूर्ण होती है| स्वस्थ सामाजिक  शिक्षा व्यक्ति में स्वस्थ संस्कार उत्पन्न करती है। इन्ही संस्कारों से व्यक्तिगत चरित्र का निर्माण होता है, यही चरित्र समाज के लिए सामजिक चरित्र कहलाता है। यही सामजिक शिक्षा है जो व्यक्तिगत चरित्र को सामजिक  चरित्र में बदल देती है। ब्यक्तिगत चरित्र ही समाज में समाहित होकर चरित्र के  परिपक्वता का निर्माण करता है। क्योंकि व्यक्ति स्वम्  में ही समाज को पूर्ण करता है। जैसा कि रहीम जि कहते है

 

जो रहीम उत्‍तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग, (चंदन विष व्‍यापत नहीं, लपटे रहत भुजंग). व्यवहार में इसकी केवल पहली पंक्ति ही बोली जाती है. जो लोग उच्च और दृढ़ चरित्र वाले होते हैं उन पर बुरी संगत का कोई कुप्रभाव नहीं पड़ता. चन्दन के पेड़ का उदाहरण दिया गया है जिस पर सांप लिपटे रहते हैं लेकिन उस में विष नहीं फैलता”

 

प्राकृतिक रूप से समय के साथ -साथ सामाजिक जीवन का स्वरुप बदलता रहता है लेकिन समाज  समाज का चरित्र नहीं बदलता है|  समाज के स्वरुप में यह परिवर्तन मूलतः ब्यक्ति के कार्य और आचरण के कारण  प्रभावित करने वाले चीजों  के आधार पर अच्छा या बुरा किसी भी रूप में यह परिवर्तन हो सकता है। परिवर्तन व्यक्ति के चरित्र को भी अपने अनुरूप ही प्रभावित करने की क्षमता रखता है। ऐसे में समय के साथ परिवर्तन शिक्षा (अच्छा या बुरा का ज्ञान)  ही एक मात्र साधन है जो मनुष्य में विवेक शक्ति उत्पन्न करके उसके नैतिक चरित्र को दृढ़ता प्रदान करती है। मनुष्य के जीवन में शिक्षा की निरंतरता ही समाज समर्पित व्यक्ति का चरित्र निर्माण करनेकी शक्ति रखती है| 

“आपके चेहरे पर लगी कालिख औरों को दिखती है आपको नहीं. आपके चरित्र पर धब्बा आपको स्वयं नहीं दिखता, औरों को दिखता है”

 

 

यह कदापि माने नहीं रखता है कि मनुष्य का वातवरण जैसे वह क्या पहनता है, क्या खता है ,कहाँ रहता है। अत्यधिक महत्त्व पूर्ण तत्व उसका ब्यवहार और आचरण होता है जो उचित माध्यम और सही तरीके से ग्रहण की गयी सामजिक शिक्षा ही है जिसके द्वारा वह अपने  वातावरण को ऊतम और सार्थक बना सकता है|स्वस्थ और अच्छी ज्ञानवर्धक  शिक्षा से ही एक उत्तम और प्रभावशाली चरित्र का निर्माण होता है ,जो ब्यक्तियो के समूह से मिलकर एक  परिवार का निर्माण करता है ,और यही स्वस्थ और सुन्दर परिवार से स्वस्थ और सुन्दर समाज का निर्माण होता है| 

 

 

 

“उज्ज्वलता मन उज्जवल राखे, वेद पुरान सकल अस भाखैं. चरित्र की शुद्धता से मन भी उज्ज्वल रहता है”

 

यह सत्य है कि हर ब्यक्ति  का अपना  व्यक्तित्व होता है जो उसे अपने को दूसरों से अलग करता है, वही मनुष्य की पहचान है। । परन्तु मात्र ब्याक्तितव के विभिन्नताओ के कारण मनुष्य एकाकी रहकर कठनाईयों से आसानी से निपट नहीं सकता है और ना सार्वजानिक जीवन में सफल हो सकता है| यही कारण है की सामान विचार धारा और संस्कार को मानने वाले ब्यक्तियो द्वारा अपने अपने अनुसार समाज की निर्माण होता रहता है|

यह भी सच है की जैसा प्रकृति का यह नियम है कि एक मनुष्य की आकृति व्  रंग-रूप एक दूसरे से भिन्न है। आकृति व्  रंग-रूप का यह जन्मजात भेद यही तक ही सीमित नहीं है यह भेद उसके स्वभाव, संस्कार और उसकी आदतों में भी वही असमानता रखता है| किसी एक समानता के कारण ब्यक्तियो द्वारा अवश्य ही समाज की स्थापना कर ली जाय परन्तु यदि सभी के चरित्र का निर्माण सुध्रिड नहीं है तो समाज कभी भी एक होकर सफल नहीं हो सकता है|प्रकृतिके द्वारा प्रदान इस विभीनातो के गुण ही सृष्टि का सौन्दर्य है। जिस प्रकार प्रकृति हर पल अपने को नये रूप में बदलती रहती है जिसका प्रभाव को हम बिना किसी भेद-भाव को सहर्ष स्वीकार कर लेते है| हमें अपने सामजिक जीवन में भी होने वाले परिवर्तन को भी समय और परिस्थिति के अनुसार स्वीकार करना चाहिए| कार्य – विचार और सोचने की क्षमता सभी ब्यक्तियो में एक सामान नहीं हो सकती है पर यदि ब्यक्ति का चरित्र उत्तम है तो यह सभी विभिन्नताओ के बावजूद हम सामाजिक जीवन को स्थापित करने में सफल हो सकते है|साथ चलने और एक-दूसरे के सहयोग की भावना के साथ यदि ब्यक्ति में समर्पण का भाव रहे तो सामाजिक जीवन और यापन में कोई भी टकराव या भेद नहीं हो सकता है|ब्यक्ति  के किसी भी एक कार्य करने के शैली या तरीके में अंतर हो सकता है परन्तु यदि उसी कार्य के करने के तरीके बहुत से है तो हम मिलकर एक प्रयास से सबसे अच्छे और सरल तरीके द्वारा आसानी से सफलता प्राप्त कर सकते है|

धन गया कुछ नहीं गया, स्वास्थ्य गया कुछ गया, चरित्र गया सब कुछ गया. अर्थ स्पष्ट है”

चरित्र ही वह धूरी है जिस पर मनुष्य का जीवन सुख शान्ति और मान – सम्मान की दशा  अथवा दु:ख, दरिद्रता, अशान्ति, असन्तोष की प्रतिकूल दिशा में गतिमान होता है, तब क्यों न उज्जवल चरित्र के लिए उज्जवल संस्कारों को कंजूस  के धन की तरह बटोरना शुरु कर दें। इसके लिए उज्जवल विचारों को ग्रहण करना होगा। अकल्याणकारक दूषित विचारों को एक एक क्षण के लिए भी पास न फटकने दें। वेद भगवान का आदेश है (ऋग्वेद) ‘‘आ नो भद्र: क्रतबो भन्तुविश्वत:’’ सब ओर से कल्याणकारी विचार हमारे पास आए-हमारा जीवन मंत्र बन जाए।

संस्कारों का प्रारम्भ अभ्यास से होता है। वस्तुत: मनुष्य अपने संस्कारों का दास होता है। संस्कार बहुत ढीठ प्रकृति के होते हैं। ये जल्दी नहीं बदलते।

संस्कार निर्माण की प्रक्रिया में निम्नं चीजे महत्वपूर्ण है -

1. विचार

2. विचार की पुनरावृत्ति (बारम्बार चिन्तन)

3. विचारों का कर्म से क्रियान्वयन (परिवर्तन)

4. कर्म की पुनरावृत्ति (अभ्यास)

5. आदत बन जाना (पुनरावृति)

7. संस्कार- (स्वभाव में परिणित हो जाना)

 

 

संगत से सब होत है, वही तिली वहि तेल, जांत पांत सब छोड़ के पाया नाम फुलेल. संगत से व्यक्ति का चरित्र बदल जाता है. तिली के तेल को जब इत्र की संगत मिल जाती है तो उस का नाम तिली का तेल न रह कर इत्र हो जाता है.