सामजिक चरित्र के आवश्यकता
किसी भी
समाज के संगठन एवं सफल निर्माण और क्रियानावन के लिए समाज में एक उच्च चरित्र का होना आवश्यक है| सामाजिक चरित्र किसी भी समाज के लिए एक स्थाई और सुद्रिढ चरित्र है। सामाजिक संरचना के हम सभी
सहभागी और प्रतिभागी है| हमारी ब्यक्तिगत चरित्र ही सामाजिक चरित्र को चरितार्थ
करती है अत: सामाजिक चरित्र ही समाज की आधारशिला है। यही वह गुण है जो सर्व समाज में समाज को एक सम्मानजनक स्थान व् पहचान दिलाता
है। हमारी ब्यक्तिगत चरित्र ही समाजिक चरित्र का भी पर्यायवाची है। सामाजिक चरित्र के निर्माण के
लिए हमारे बहुत से ब्यक्तिगत चीजे जैसे शिक्षा, संस्कार और कार्य – ब्यवहार,
सामाजिक जागरूपता, अच्छाई-बुरे का ज्ञान आदि अनिवार्य है। जिसमे हमारे ब्यक्तिगत संस्कार,शिक्षा और
ब्याक्तितव का प्रमुख स्थान है। सामाजिक ज्ञान और शिक्षा चरित्र निर्माण का प्रमुख
साधन है वही संस्कार सामाजिक समूह को एक सूत्र में बाधने और संगठित करने का साधन
भी है| सामजिक
चरित्र व्यक्तिगत चरित्र पर पूर्ण रूप से निर्भर है। समाज व्यक्तियों के मिलाने और जुडने से
मिलकर बनता है, इसलिए व्यक्ति के प्रत्येक क्रियाकलाप का सीधा प्रभाव समाज पर पड़ता
है। अतः उसकी अच्छाइयों और बुराइयां दोनों ही समाज के निर्माण में अहम महत्व रखता
है| व्यक्ति
के चरित्र निर्माण में उसका परिहवेश(रहन-सहन) और स्वभाव का विशेष महत्त्व होता है|
जबकि स्वभाव का निर्माण संस्कारों से होता है। ये संस्कार ही होते है जो मनुष्य के
जीवन को सुखी, संतोषप्रद और अनुशासित बनाते है। संस्कार निर्माण एक लम्बी
प्रक्रिया है जो मनुष्य के को जीवन उपरांत अपने वातावरण खासकर परिवार और आस-पास के वातावरण
से शुरू होकर समाज में हो रही गतिविधियों
से प्राप्त होती है| यही संस्कार परिमार्जित होकर चरित्र की विशषताओं का रूप
धारण करते रहते है। संस्कारों पर परिवेश, अभ्यास, आत्मावलोकन एवं स्वम् समाज का महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है।
शिक्षा संस्कारों को सुध्रिंड रूप से एवं सुन्दर व् स्वस्थ बनाने का मुख्य साधन
है।
शिक्षा का अर्थ सिर्फ जीविकापार्जन या नौकरी के लिए नहीं
करना है और नहीं केवल डिग्री प्राप्त करने
के लिए बल्कि शिक्षा का सही अर्थ अच्छाई और बुराईयों के ज्ञान के साथ हमें जीवन जीने की कला और जागरूपता
का साधन भी देता है| सामजिक ज्ञान और शिक्षा संस्कार की जननी है, यह मात्र
अतिशयोक्ती नहीं है| सामाजिक शिक्षा एक
ऐसा साधन है, जिसके माध्यम से मनुष्य ज्ञान द्वारा अच्छाई और बुराईयोंमें अंतर के साथ ब्यवहारिक
संस्कार और सभ्यता सिखाता है| आवश्यक शिक्षा हमें गुरुकुल (विद्यालय) के गुरुजनों
के सानिध्य और ज्ञान से प्राप्त होती है जिससे हमें यही ज्ञान और जीवन के अनुभव
संस्कार को बनाने में सहायक होते है| ब्यक्ति के सामाजिक ज्ञान और शिक्षा उसके कार्यों एवं सोच का सीधा प्रभाव
समाज के निर्माण पर पड़ता है| ऐसे में शिक्षा की भूमिका किसी भी समाज के लिये महत्वपूर्ण
होती है| स्वस्थ सामाजिक शिक्षा व्यक्ति
में स्वस्थ संस्कार उत्पन्न करती है। इन्ही संस्कारों से
व्यक्तिगत चरित्र का निर्माण होता है, यही चरित्र समाज के लिए सामजिक चरित्र
कहलाता है। यही सामजिक शिक्षा है जो व्यक्तिगत चरित्र को सामजिक चरित्र में बदल देती है। ब्यक्तिगत चरित्र ही समाज
में समाहित होकर चरित्र के परिपक्वता का
निर्माण करता है। क्योंकि व्यक्ति स्वम् में ही समाज को पूर्ण करता है। जैसा कि रहीम जि
कहते है
“जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग, (चंदन विष व्यापत
नहीं, लपटे रहत भुजंग). व्यवहार में इसकी केवल पहली पंक्ति ही बोली जाती है. जो लोग उच्च और दृढ़ चरित्र
वाले होते हैं उन पर बुरी संगत का कोई कुप्रभाव नहीं पड़ता. चन्दन के पेड़ का उदाहरण
दिया गया है जिस पर सांप लिपटे रहते हैं लेकिन उस में विष नहीं फैलता”
प्राकृतिक रूप से समय के साथ -साथ सामाजिक जीवन का स्वरुप बदलता रहता है लेकिन समाज
समाज का चरित्र नहीं बदलता है| समाज के स्वरुप में यह परिवर्तन मूलतः ब्यक्ति
के कार्य और आचरण के कारण प्रभावित करने
वाले चीजों के आधार पर अच्छा या बुरा किसी
भी रूप में यह परिवर्तन हो सकता है। परिवर्तन व्यक्ति के चरित्र को भी अपने अनुरूप
ही प्रभावित करने की क्षमता रखता है। ऐसे में समय के साथ परिवर्तन शिक्षा
(अच्छा या बुरा का ज्ञान) ही एक मात्र
साधन है जो मनुष्य में विवेक शक्ति उत्पन्न करके उसके नैतिक चरित्र को दृढ़ता
प्रदान करती है। मनुष्य के जीवन में शिक्षा की निरंतरता ही समाज समर्पित व्यक्ति
का चरित्र निर्माण करनेकी शक्ति रखती है|
“आपके चेहरे पर लगी कालिख औरों को दिखती है आपको नहीं. आपके चरित्र पर धब्बा आपको स्वयं नहीं दिखता, औरों को दिखता है”
यह कदापि माने नहीं रखता है कि मनुष्य का वातवरण जैसे
वह क्या पहनता है, क्या खता है ,कहाँ रहता है।
अत्यधिक महत्त्व पूर्ण तत्व उसका ब्यवहार और आचरण होता है जो उचित माध्यम और सही
तरीके से ग्रहण की गयी सामजिक शिक्षा ही है जिसके द्वारा वह अपने वातावरण को ऊतम और सार्थक बना सकता है|स्वस्थ और अच्छी ज्ञानवर्धक शिक्षा से ही एक उत्तम और प्रभावशाली चरित्र का
निर्माण होता है ,जो ब्यक्तियो के समूह से मिलकर एक परिवार का निर्माण करता है ,और यही स्वस्थ और सुन्दर परिवार से स्वस्थ और सुन्दर समाज का
निर्माण होता है|
“उज्ज्वलता मन उज्जवल राखे, वेद पुरान सकल अस
भाखैं. चरित्र की शुद्धता से मन भी उज्ज्वल रहता है”
यह सत्य
है कि हर ब्यक्ति का अपना व्यक्तित्व होता है जो उसे अपने को दूसरों से अलग
करता है, वही मनुष्य की पहचान है। । परन्तु मात्र ब्याक्तितव के विभिन्नताओ के
कारण मनुष्य एकाकी रहकर कठनाईयों से आसानी से निपट नहीं सकता है और ना सार्वजानिक
जीवन में सफल हो सकता है| यही कारण है की सामान विचार धारा और संस्कार को मानने
वाले ब्यक्तियो द्वारा अपने अपने अनुसार समाज की निर्माण होता रहता है|
यह भी सच
है की जैसा प्रकृति का यह नियम है कि एक मनुष्य की आकृति व् रंग-रूप एक दूसरे से भिन्न है। आकृति व् रंग-रूप का यह जन्मजात भेद यही तक ही सीमित
नहीं है यह भेद उसके स्वभाव, संस्कार और उसकी आदतों में भी वही असमानता रखता है| किसी एक समानता के कारण ब्यक्तियो
द्वारा अवश्य ही समाज की स्थापना कर ली जाय परन्तु यदि सभी के चरित्र का निर्माण
सुध्रिड नहीं है तो समाज कभी भी एक होकर सफल नहीं हो सकता है|प्रकृतिके
द्वारा प्रदान इस विभीनातो के गुण ही सृष्टि का सौन्दर्य है। जिस प्रकार प्रकृति
हर पल अपने को नये रूप में बदलती रहती है जिसका प्रभाव को हम बिना किसी भेद-भाव को
सहर्ष स्वीकार कर लेते है| हमें अपने सामजिक जीवन में भी होने वाले परिवर्तन को भी
समय और परिस्थिति के अनुसार स्वीकार करना चाहिए| कार्य – विचार और सोचने की क्षमता
सभी ब्यक्तियो में एक सामान नहीं हो सकती है पर यदि ब्यक्ति का चरित्र उत्तम है तो
यह सभी विभिन्नताओ के बावजूद हम सामाजिक जीवन को स्थापित करने में सफल हो सकते है|साथ चलने और एक-दूसरे के सहयोग की
भावना के साथ यदि ब्यक्ति में समर्पण का भाव रहे तो सामाजिक जीवन और यापन में कोई
भी टकराव या भेद नहीं हो सकता है|ब्यक्ति के किसी भी
एक कार्य करने के शैली या तरीके में अंतर हो सकता है परन्तु यदि उसी कार्य के करने
के तरीके बहुत से है तो हम मिलकर एक प्रयास से सबसे अच्छे और सरल तरीके द्वारा
आसानी से सफलता प्राप्त कर सकते है|
“धन गया कुछ नहीं गया, स्वास्थ्य गया कुछ गया, चरित्र गया सब कुछ
गया. अर्थ स्पष्ट है”
चरित्र
ही वह धूरी है जिस पर मनुष्य का जीवन सुख शान्ति और मान – सम्मान की दशा अथवा दु:ख, दरिद्रता, अशान्ति, असन्तोष की
प्रतिकूल दिशा में गतिमान होता है, तब क्यों न उज्जवल चरित्र के लिए उज्जवल संस्कारों को कंजूस के धन की तरह बटोरना शुरु कर दें। इसके लिए
उज्जवल विचारों को ग्रहण करना होगा। अकल्याणकारक दूषित विचारों को एक एक क्षण के
लिए भी पास न फटकने दें। वेद भगवान का आदेश है (ऋग्वेद) ‘‘आ नो भद्र: क्रतबो भन्तुविश्वत:’’
सब ओर से कल्याणकारी विचार
हमारे पास आए-हमारा जीवन मंत्र बन जाए।
संस्कारों
का प्रारम्भ अभ्यास से होता है। वस्तुत: मनुष्य अपने संस्कारों का दास होता है।
संस्कार बहुत ढीठ प्रकृति के होते हैं। ये जल्दी नहीं बदलते।
संस्कार निर्माण की
प्रक्रिया में निम्नं चीजे महत्वपूर्ण है -
1. विचार
2. विचार
की पुनरावृत्ति (बारम्बार चिन्तन)
3. विचारों
का कर्म से क्रियान्वयन (परिवर्तन)
4. कर्म
की पुनरावृत्ति (अभ्यास)
5. आदत
बन जाना (पुनरावृति)
7. संस्कार-
(स्वभाव में परिणित हो जाना)
संगत से सब होत है, वही तिली वहि तेल, जांत पांत सब छोड़ के पाया नाम फुलेल. संगत से व्यक्ति का
चरित्र बदल जाता है. तिली के तेल को जब इत्र की संगत मिल जाती है तो उस का नाम
तिली का तेल न रह कर इत्र हो जाता है.
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