शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2013

शारीरिक श्रम की आवश्यकता



शारीरिक श्रम की आवश्यकता
आज समाज और देश जिस वातावरण और आधुनिकता के दौर से गुजर रहा है, आने वाला समय हमारे स्वास्थ और समाज के लिए अच्छा नहीं होगा| ऑटोमेशन और कम्प्यूटराइजेशन ने पुरे देश और सामाज को पंगु बना दिया है| लोग आधुनिकता और चमक दमक की जीवन के अभ्यस्त होते जा रहे है जिसका सीधा प्रभाव हमारे स्वास्थ पर पड़ रहा है|  स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ दिमाग का निवास होता है, इस कहावत का इस अधिनुक युग में कोई मतलब नहीं है, परन्तु यह कहावत सदैव सही है जब तक हम स्वस्थ नहीं रहंगे तबतक कोई भी कार्य सफल नहीं हो सकता है| आज के इस  ऑटोमेशन और कम्प्यूटराइजेशन के आधुनिक युग में देश समाज का हर दूसरा ब्यक्ति किसी न किसी अशाध्य रोग से पीड़ित है साथ ही हर ब्यक्ति कोई न कोई दवा का सेवन करता है| इस कथन से हर ब्यक्ति सहमत होगा, परन्तु वह इसके मूल कारन और निवारण की तरफ कभी भी ध्यान नहीं देता होगा| हर डॉक्टर और मरीज भी इस बात को जानता और समझता है फिर भी वह इस तरफ ध्यान नहीं दे रहा है जिसका कारन सिर्फ भाग दौड़ भरी जिन्दगी जिसमे पैसा ही सब कुछ है पर सभी का ध्यान  है| पैसा अवश्य जरूरी है पर सब कुछ केवल पैसा नहीं हो सकता है क्यों कि यदि पैसा बहुत हो भी  और उसका उपयोग सिर्फ दवा के लिए हो इससे क्या फायदा होगा| स्वास्थ का सीधा सम्बन्ध  निरोग शरीर से है और शरीर का सम्बन्ध श्रम से, अब जबतक हम शारीरिक श्रम नहीं करेंगे तब तक हम  स्वस्थ नहीं रह सकते है| श्रम का मतलब केवल टहलने और व्यायाम से नहीं है ये तो अस्वस्थ शरीर को स्वस्थ रखने की उपचार है| शारीरिक श्रम का मतलब श्रम दान से है जिसमे आप कोई भी कार्य श्रम द्वारा करे और शरीर को एक सीमा तक थका दे| आज के दौर में श्रम दान शब्द समाज से ख़तम हो चूका है| खेती बारी, घर बाहर के दैनिक कार्य सभी आधुनिकता का रूप ले चुके है| खेती करने के रोज़ नयी नयी तकनिकी और उपकरणों का आविष्कार हो रहा है, जिसे किसान प्रयोग कर खेती को तो सरल और उत्पाद को बढ़ा कर पैसा कमा ले रहे पर, उसका असर उनके स्वास्थ और शरीर पर क्या पड़ रहा है इससे अनिभिज्ञ रह रहे है, और बीमारी होने पर सारा पैसा दवाओं, हॉस्पिटल तथा डाक्टर को दे दे रहे है, और गौरवन्वित मह्शूश करते है की मैंने दिल्ली, बम्बई और विदेश में इलाज कराया| इसी प्रकार शहरों में पैसा कमाने के लिए लेबर और गैर अधिकारी वर्ग के लोग दिन दुनी रात चौगुनी मेहनत कर के पैसा कमा रहे है एक एक साथ कई काम कर रहे है, वही उच्च वर्ग के नौकरी पेशा लोग या तो आवश्यकता से अधिक कार्य करते है या फिर गलत तरीको का प्रयोग  कर पैसा कमाने की होड़ में लगे हुए है उन्हें स्वास्थ से तब मतलब समझ में आती है जब बीमार होने पर बहुत ही बड़े डाक्टर से इल्लाज कराने जाते है और कहते है मैंने फला डाक्टर से इलाज कराया है, और फिर दवाओं का सेवन ज्यादा और खाने का कम खर्च ही धनाड्य और नामी होने की पहचान बनता जा रहा है| यदि यही परम्परा बनी रही तो आने वाले समय में स्वस्थ लोगो की संख्या इतनी कम होगी की फिर उनकी पहचान बड़े ही अस्सानी से हो जायेगी| यह समाज के साथ साथ सरकार के लिए भी एक गंभीर समस्या के साथ मुद्दा बन जायेगी| इस प्रकार समाज और सरकार दोनों को इअसके लिए योजनाये और आन्दोलन चलाना पडेगा जैसा की आज के समय में शिक्षा, भुखमरी, महगाई तथा सुरक्षा के लिए इया जा रहा है| देश का युवा जब स्वस्थ नहीं रहेगा तो फिर देश की रक्षा कौन करेगा, और इसी प्रकार अन्य सारी सामाजिक और सरकारी कार्यो में अक्षमता आने से देश कमजोर होगा जिसके भयावक परिणाम हो सकते है| अत: हमें अभी से इस दिशा में सोचने, विचार करने और चिंतन करने के आवस्यकता है| सामाजिक सस्न्थानो और सरकार को इस दिशा में कार्य करने की अति आवश्यकता है, हमें स्वास्थ को शिक्षा से जड़ने की आबश्यकता बनानी चाहिए, स्चूलो में शारीरिक श्रम पर जोर देना चाहिए, पूर्व में चल रहे फिजिकल ट्रेनिग और गेम के पीरियड को अनिवार्य बनाना होगा| सभी सरकारी, गैर सरकारी संस्थाओ में आराम तलब की च्जो को हटाना होगा, आफिस आने जाने के किये पैदल, साएकिल को प्रोत्शाहन देना होगा, आफिस के छोटे मोटे काम को स्वत: करने ले लिए प्रेरित करना होगा| सामाजिक संस्थाओ द्वारा व्याम्शालो और पार्को का निर्माण पर जोर देकर उसके सदस्य बनाकर स्वास्थ और स्वस्थ रहने के तरीको का प्रचार प्रसार करना होगा तभी देश और समाज स्वस्थ होगा| यदि इस ओंर समय रहते ध्यान नहीं दिया गया तो आने वाले समय में स्वास्थ के लिए भी क़ानून बनाने की आवस्यकता पड़ेगी, फिर जनमानस के साथ इसका भी राजनीतिकरण हो जाएगा, जिसमे आम जनता का ही नुकशान होगा जैसा की अभी तक के बने सारे कानून में हो रहा है|

बुधवार, 2 अक्तूबर 2013

परिश्रम ही सफलता की कुंजी है


परिश्रम ही सफलता की कुंजी है 
 
 
दुनिया में किसी भी चीज का कोई शॉर्टकट नहीं है । हमें इसे याद रखना होगा शॉर्टकट  द्वारा छणिक लाभ पाया जा सकता है पर वह स्थाई कभी नहीं होगा| परन्तु आज के परिवेश में मनुष्य सफलता पहले से तय कर के परिश्रम करता है जिसके कारण वह परिश्रम को पूरा नहीं कर पाता और फिर उसे असफलता ही मिलता है तो शॉर्टकट के तरफ जाने को बाध्य हो जाता है। प्रकृति से हम इसे सिख सकते है कि कैसे चीटी एक एक डेन को ईकठा कर के पूरा कुनबा का भोजन प् लेती है। मधुमखीया  कैसे मिलकर एक असमान सा दिखने वाला छ्ता लगा देती है जिसमे  बडी  मात्रा में  शहद ईकठा हो जाता है। ठीक उसी प्रकार यदि मनुष्य भी कार्य करे तो वह किसी भी सफलता को पा सकता है 

सिर्फ राइट टू रिजेक्ट पूर्ण नहीं


सिर्फ राइट टू रिजेक्ट पूर्ण नहीं


 

सुप्रीम कोर्ट ने एक और अत्यंत महत्वपूर्ण फैसले मे सामाजिक राजनैतिक के उत्थान और मजबूती के लिए सर्कार के साथ सभी राजनैतिक डालो को एक नई सीख डी| जिसे सभी राजनैतिक दल अपने जागीर समझते थे|  सभी राजनैतिक दल, राजनैतिक प्रतिस्पर्धा और अधिक से अधिक सीट प्राप्त करने के लिए उसी जैसा प्रत्य्याई चुनाव के मैदान मे उतारते थे जो उस प्रत्य्याई पर बीस पड़े, अब वह प्रत्य्याई चाहे कितना भी बड़ा ईमानदार और  या बेईमान या फिर सजाफ्ता क्यों न हो क्योकि की सभी को चुनाव लादने की छूट थी, जिसका फायदा सभी राजनैतिक दल उठा रहे थे| सुप्रीम कोर्ट के नए फैसले से बहुत हद तक साफ़ सुथरी और अच्छे उमीदवारो को वरीयता तो मिलेगी पर कौन कब तक अच्छा है इस बात की कोई गारंटी नहीं हो सकती है, परिवर्तन संसार का नियम है जो इस पर भी लागू होगा| ऐसे मे सभी राजनतिक दलों को चाहिए की हो अधिक से अधिक उन लोगो को अपने राजनतिक दलों मे शामिल करे जिनके चरित्र साफ़ सुथरी हो, सभ्य, शिक्षित और सामजिक सेवा का भाव रखते हो, साथ ही उनमे राजनतिक इक्क्षा शक्ति हो| इस सम्बन्ध मे उस सभी समाज के लोगो को भी आशा की जानी चाहिए जिनके अंदर राजनैतिक और देश सेवा की भाव है आगे आकर सभी प्रमुख राजनैतक दलो का सदस्य बने ताकि उनको सभी राजनैतक दल अपना सुयोग्य प्रत्यासी बना सके| आज सभी राजनैतिक दलों मे एक सभ्य, शिक्षित और सामजिक सेवा का भाव रखने वाले सदस्यों की बहुत कम है जो की कि एक बड़ा कारण है, इसके कई कारण हो सकते है, इस विषय पर ना जाकर सिर्फ भारतीय राजनीति को सशक्त और सुद्रिढ बनाने के लिए हर रोज सुप्रीम कोर्ट के नए फैसले को लागू करने की जरुरत ना पड़े इससे बचना होगा| यदि सुयोग्य और सामाजिक रूप से शिक्षित उमीदवार होगा तो राइट टू रिजेक्ट की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी| और हर बार कानून थोपने की जरुरत नहीं पड़ेगी| एक सवाल यह भी है कि यदि किसी राजनैतिक दल का चुना हुवा प्रत्याशी चुनने के बाद गलत और अयोग्य हो जाय तो क्या होगा क्योकि अच्छाई और बुराई किसी के अंदर पहले से नहीं होती है, जैसा कि यह प्रकृतिक नियम है की समय किसी के लिए एक समान नहीं रहता और कभी कोई भी पूर्ण नहीं हो सकता है समय के साथ हर चीज बदल जाती है| अत: सिर्फ राइट टू रिजेक्ट काफी नहीं होगा, दूसरी समस्या आज तक भारतीय राजनैतिक चुनाव मे कभी भी सामान्यतः ५०% से ज्यादा वोट नहीं पड़ते है, ऐसे मे यह क्या मानना उचित होगा कि वोट ना करने वाले सभी वोटर राइट टू रिजेक्ट को सपोर्ट कर रहे है क्योकि राइट टू रिजेक्ट का वोट कभी भी किसी भी सदस्य के लिए हार या जीत को नहीं रोक सकेगा| अत: किसी ना किसी सदस्य का चुनना तब तय है, ऐसे मे राइट टू काल का भी कानून बना होगा, जो नया नहीं है जब लोकतंत्र मे नौकरी करने पर किसी गलत कार्य या आचरण के कारण उस नौकरी पाने वाले को निकाला जा सकता है तो फिर चुनाव जीत जाने पर उसी तरह उन्हें वापस भी बुलाया जा सकता है| परन्तु यह आचरण और प्रक्रिया कही उलटी ना पड़ जाय और देश का सारा समय सिर्फ चुनाव और उसकी व्यस्था बनाने मे ही, समय और आर्थिक नुकशान उठाना पड़े| अत: इस चुनावी सुधार मे कुछ और भी नियम तय करने होगे जैसे की चुनाव लड़ने के लिए उम्र की सीमा निर्धारित है तो फिर और चीजे जैसे शारीरिक, मानसिक, शैक्षणिक आदि योग्यता क्यों नहीं लागू की जा सकती है| जन्हा एक तरफ लोकतंत्र मे सामान्य नौकरी से लेकर आइ० ए० एस० और आइ० पी० एस० के लिए जब इतने कठिन परीक्षा तथा ट्रेनिग ली जा सकती है तो फिर देश के लोकतंत्र को चलाने और नियम बनाने वाले के लिए योग्यता और ट्रेनिग का निर्धारण आवश्यक क्यों नहीं किया जाय क्या इसके लिए भी आज नहीं तो कल सुप्रीम कोर्ट को कोई आदेश देना पडेगा|

समय, भाग्य और कर्म


समय, भाग्य और कर्म


एक कहावत अत्यन ही चरितार्थ है, कि समय बड़ा बलवान होता है| मनुष्य छड भर मे राजा और दूसरे छड मे रंक बन जाता है| हम किसी के भाग्य के बारे मे कोई भी भविष्यवाणी नहीं कर सकते है, हम कभी कभी यह सोचने के लिए मजबूर हो जाते है एक व्यक्ति कैसे राजा से रंक और रंक से राजा बन जाता है| इस विषय मे यह कहना अतिशयोक्ति है की समय पर किसी का नियंत्रण नहीं होता है, वह परमात्मा द्वारा निर्धारित रहता है, भाग्य भी मनुष्य के हाथ मे नहीं होता है वह दूसरों के हाथ मे होता है, अब केवल कर्म ही बचाता है जो मनुष्य के अपने हाथ मे है| यह बाते मनुष्य तब तक नहीं समझ सकता जब तक की उसको वह प्रयोगिक रूप से अनुभव ना कर ले, और तब तक प्रायः बहुत देर हो चुकी होती है| अब कर्म प्रधान जीवन ही सफल हो इसके लिए सच्चे रूप मे सही दिशा और लक्ष्य के साथ हमें कर्म करना चाहिए| गीता मे कहा गया है की जैसे कर्म करेगा प्राणी वैसे फल देगा भगवान, यहाँ भगवान का मतलब समय और भाग्य से है यह कोई जरूरी नहीं की अच्छे कर्म आप करे और अच्छा फल पा ही जाय| क्योकि समय किसी के हाथ मे नहीं है न कोई उसे अपनी इक्षा के चला सकता है, वही उसका भाग्य दूसरों के हाथ मे होता है वह उसको जबर्जस्स्ती ले नहीं सकता है| हर प्राणी का धरती पर आने(जन्म) और जाने (मृत्य) का समय निश्चित होता है, और वह किसी को पता नहीं होता है| यह एक प्राकिरितिक बय्वस्था है, जो संसार को चलाने के लिए जरूरी है, एक ही व्यक्ति या समुदाय हमेशा के लिए बना रहे तो जीवन के साथ प्रकिरती भी रुक जायेगी, और संतुलन बिगराने के साथ संसार भी समाप्त हो सकता है| मनुष्य के वश मे कुछ भी नहीं है फिर भी हम सत्य और कर्म को भूल जाते है, इसमे मनुष्य का भी कोई दोष नहीं है क्योकि यदि आप असत्य का साथ नहीं देगे पापी नहीं होगे तो फिर, इस बात का एह्शाश कैसे होगा की अच्छाई और बुराई मे क्या अंतर है, प्रकिरती ने प्राणी को जन्म देने के साथ ही सुख-दुःख, यश-अपयश, उंच-नीच, आदि का कर्म उसके भाग्य मे बाद देता है| अब समय और भाग्य  के बाद कर्म जो की अपने हाथ मे होता को अच्छा या बुरा बनाना होता है| हम अच्छे कर्म करगे तो अच्छे फल की उम्मीद कर सकते है पर यदि कर्म ही बुरा है तो फिर समय या भाग्य हमा कुछ नहीं कर सकता है| यह दीक वैसे ही है जसे की आप कोई वृछ लगते है तो जो वृछ अच्छी तरह से देख-भाल  होता है उसमे फल अच्छा और ज्यादा होता है और जिसमे देख भाल  नहीं होता वह नहीं देता है| यह समय की ही दें होती है एक व्यक्ति अत्यधिक धनवान होने के बाद भी उस धन का उपयोग नहीं कर पाता है, और कोई निर्धन होते हुए भी दूसरों के धन का उपभोग करता है, यही भाग्य है|

सामाजिक जीवन ही सफल जीवन है


सामाजिक जीवन ही सफल जीवन है

हर मनुष्य जन्म लेने के बाद से जो भी कार्य करता है वह अपने ही लिए करता है इसमे कोई  संदेह और दुविधा  नहीं हो सकती है, यह भी सत्य है की जीवन पाने के बाद उसे चलाने या जीने के लिए कार्य चाहे जिस रूप मे हो, उसे करना ही पडता है पर अपने लिए तो सभी जीते है पर उसका जीवन तभी सफल हो सकता है जब वह दूसरों के लिए भी जिए या कार्य करे जिसे हम सामाजिक कार्य अथवा सेवा का नाम देते है| अब यह सेवा या कार्य कई रूपों मे हम कर सकते है जैसे देश सेवा, गौ सेवा, प्रक्रति सेवा, माता-पिता की सेवा, बुजुर्गो की सेवा आदि आदि बहुत प्रकार के सेवा है, पर इसमे माता-पिता की सेवा और गौ सेवा से बढ़कर कोई अन्य सेवा संसार मे नहीं है| मनुष्य आधुनिकता और भाग-दौड़ तथा स्वार्थ बस इन समाज कल्याण जैसे कार्य को बहुत ही पीछे छोड़ चुका है, आज इसकी बात करने संवाद करने की तक की किसी को फुर्सत नहीं है| ऐसा नहीं है की उक्त सेवाए समाज के लोगो द्वारा  नहीं की जा रही है पर उसमे भी कही ना कही मनुष्य का स्वार्थ छिपा रहता है इसी कारण वह सामाजिक सेवा भी आधुनिकता का रूप ले चुकी है| मनुष्य इस प्रकार की सेवा और कार्य तभी कर सकता है जब वह स्वंम् मे परिपूर्ण हो, इस परिपूर्ण का मतलब यह नहीं है की वह हर तरह से समपन्न और समर्थ हो, किसी भी सामजिक कार्य या सेवा के पीछे आप एहसान करने जैसी बात कभी भी ना समझे की मै किसी की मदद कर दू तो वो भी मेरी मदद करेगा या मेरा गुणगान करेगा, जिससे मेरी दुनिया  मे नाम और शोहरत प्राप्त हो|  आप यह मान कर यदि सेवा करते है की वह ही व्यक्ति या सेवा/सहयोग  पाकर  अपने कार्य मे सफल हो सके या आगे बढ़ सके या फिर उसके भी जीवन मे खुशहाली आ जाय, ऐसा करने के बाद आप को स्वंम्  अनुभव होगा की आप ने एक ऐसा कार्य किया है जिससे आप को  मन मे प्रसन्नता और शांति मिलेगी कि आप कृतज्ञ हो गए है| इस एहसास को बया नहीं किया जा सकते है| सेवा करने वाके व्यक्ति को मदद करने वाला कोई ना कोई मनुष्य अपने आप ही मिल जाता है उसे ढूढना नहीं पडता है| सामजिक कार्य से भाकर संसार मे दुसरा कोई कार्य नहीं है, इसे सिर्फ करने के बाद ही अनुभव किया जा सकता है| सम्पन्नता और एश्वर्या पाने के लिए आप जो चाहे कर ले पर वह कभी स्थाई नहीं हो सकती है एक ना एक दिन आप को भी किसी की जरूरत पड़ेगी, तब यह एह्शाश होगा इसे कोई भी  झुठला नहीं सकता है| धन पाने और एश्वर्या पाने की ईच्छा कभी खत्म नहीं होती है| यही प्रकिती का नियम है क्योकि यदि यह सीमा तय हो जायेगी तो प्रगति के साथ साथ संतुलन बिगड जायेगा, लोगों मे स्थिरता होने से तनाव बढ़ जायेगी, इसी लिए मनुष्य किसी भी कार्य से कभी संतुस्ट नहीं हो सकता है और आगे और आगे बढ़ने और जीवन के चक्र को चलाने के लिए वह जरूरी है, क्योकि यही क्रम को देखकर अन्य सभी सामाजिक चक्र को आगे चलाते है| और समय, भाग्य और कर्म का सम्बन्ध बना रहता है| इच्क्षाये कभी भी किसी की पूरी नहीं हो सकती है, पृथ्वी सूर्य, चन्द्रमा, जीवन के तरह ही सत्य है., प्रकिरती को ही देख ले उसकी भी इक्श्क्षा  कभी पूरी नहीं होती है (एक सामान नहीं होतीहै) सूर्य किसी वर्ष और समय मे इतनी गर्मी दे देता है की पिछले सारे रिकार्ड टूट जाते है, वर्षा कभी इतनी कम और कभी इतनी ज्यादा हो जाती है पिछले सारे रिकार्ड टूट जाते है आदि आदि..  तो हम मानव तो प्रकिरती के बनाए हुए प्राणी है तो भला हम कैसे इससे अछूते रह सकते है| मानव जीवन भी ठीक प्रकिरती के भाति एक सामान नहीं रह सकता है, उसमे भी जीवन चक्र  होता है पर वह किसके लिए कितना है यह समय के साथ कर्म के द्वारा भाग्य के रूप मे प्राप्त होता है| इस जीवन के चक्र को चलाये रखने के लिए सुख-दुःख, अमीरी-गरीबी, छोटा-बड़ा आदि चीजे निश्च्चित समय के लिए कर्म अनुसार भाग्य के रूप मे आते जाते रहते है| इसी क्रम मे कोई निर्धन और यह पाकर मृत्य को पाता है तो कोई निर्धन और अपयश पाकर, पर मृत्य सभी की होनी है, यही एक और केवल अंतिम सत्य है जो उस ईश्वर को मानने के लिए हम सभी को प्रेरित करती है| अंत मे केवल सार यही है की यदि हम उस ईस्वर मे विलीन होना चाहते है तो कर्म जो अपने वश मे है वह अच्छा से अच्छा करे, और अपने लिए जीवन जीने के साथ साथ कुछ ना कुछ सामजिक कार्य/सेवा अवश्य करे ताकि मृत्य के बाद कोई असत्य जीवन का शेष न रहे|