बुधवार, 3 मार्च 2021

वसंत के रंग समाज के संग

 

वसंत के रंग समाज के संग

बसंत पंचमी को  हमारे समाज में बहुत ही शुभ मुहूर्त साझा गया है। प्राय: हर समाज में इस नवागुत शुभ मुहूर्त में बहुत से चीजों जैसे संस्कार कार्य, गृह प्रवेश, विद्या किये जाने हेतु और शादी विवाह आदि के अनेक रस्म की प्रारम्भ बसंत पंचमी के अवसर पर किये जाते है| वसंत ऋतु माह को पुराणों में भी श्रेयस्कर माना गया है।

विद्या की देवी सरस्वती का जन्मदिवस भी वसंत पंचमी के दिन वसंत ऋतु के आगमन का भी प्रतीक है। वसंत ऋतु का पर्व भारत के साथ-साथ अनेक देशोँ जैसे  बांग्लादेश और नेपाल में भी धूमधाम से मनाया जाता है, साथ ही दुनिया में जहां भी जाकर भारतीय बसे हैं, वहा वसंत ऋतु पर्व को पूरे विधि-विधान से मनाते हैं। भारतवर्ष में  पूर्व में स्थित प्रदेशों बंगाल, आसाम और खासकर बिहार में इसका बहुत ही महत्व है, इन प्रान्तों में लोग माँ सरस्वती के स्थापना और पूजन के साथ इनका विसर्जन आदि के कई कार्यक्रम हर्ष-उल्लास के साथ मानते है|  वसंत ऋतु का पर्व माँ शारदा  की व्रत, पूजा और उनकी असीम अनुकम्पा प्राप्त किये जाने का भी अवसर है। वसंत ऋतु में पूर्वजो का मना है कि वसंत ऋतु के दिन पीले वस्त्र पहनने चाहिए। वसंत ऋतु पर्व का  महत्व का महिमा पौराणिक ग्रंथो, पुराणों और अनेक धार्मिक ग्रंथों में विस्तारपूर्वक किया गया है। इसका उलेख्या  देवी भागवत में भी मिलता है कि माघ शुक्ल पक्ष की पंचमी को ही संगीत, काव्य, कला, शिल्प, रस, छंद, शब्द शक्ति को प्राप्त हुई थी।

पौराणिक ग्रंथों के अनुसार वसंत पंचमी पर पीला रंग के महत्व वर्णित है और इस दिन पीला रंग के वस्त्र और अन्य चीजे सामाजिक जीवन में उपयोग की जाती है| क्योंकि इस पर्व के बाद शुरू होने वाली बसंत ऋतु में फसलें पकने लगती हैं और पीले सरसों के फूल भी खिलने लगते हैं। वसंत ऋतु त्योहार पर पीले रंग का महत्व इसलिए कहा जाता है क्योंकि बसंत का पीला रंग समृद्धि, ऊर्जा, प्रकाश और आशावाद का प्रतीक है। इसलिए इस दिन पीले रंग के कपड़े पहनते हैं, साथ हे लोग घरों  में पीली द्रब्य पदार्थो  के खाद्य व्  व्यंजन बनाते हैं।


मनुष्य के जीवन में उमंगे भरती, प्रकृति और मनुष्य को जोड़ने वाली ऋतु है वसंत ऋतु कड़कड़ाती ठंड के अंतिम चरण में जाने के बाद वसंत ऋतु का आगमन प्रकृति को वासंती रंग से सराबोर कर जाता है। वसंत ऋतु के आगमन से आम के पेड़ों पर बौर आने भी शुरू हो जाते है| हिंदू संस्कृति में इस दिन आम के बौर और ऊल्लू का देखना भी शुभ माना जाता है| सारी धरती हरे भरे हरियाली से ढकी सरसों के खेत पीले फूलो से ढके और गेंहू के बाल पके खेतों में लहलहाते है| गुलाबी ठंड, वसंत पंचमी ऋतुओं के उसी सुखद परिवर्तन का एक रुप है।

 

हमारा हैहयवंश क्षत्रिय समाज में भी पुरातन काल से आज भी अधिकतर घर – परिवार में वसंत ऋतु के आगमन का स्वागत बड़े ही हर्ष-उल्लास के साथ मनाया जाता है| इस दिन सभी घर के लोग सुबह सुबह ही स्नान ध्यान के उपरांत पीले वस्त्रों को धारण करते है और माँ सरस्वती, शारदा और भगवन शंकर के मंदिर में पूजा अर्चना भी करते है| अधिकतर परिवारों में इस दिन अनेक शुभ कार्यों का प्रारम्भ करते है|

पौराणिक मान्यता

सृष्टि की रचना के समय ब्रह्माजी ने महसूस किया कि जीवों की सर्जन के बाद भी चारों ओर मौन छाया रहता है। उन्होंने विष्णुजी से अनुमति लेकर अपने कमंडल से जल छिड़का, जिससे पृथ्वी पर एक अद्भुत शक्ति प्रकट हुई। छह भुजाओं वाली इस शक्ति रूप स्त्री के एक हाथ में पुस्तक, दूसरे में पुष्प, तीसरे और चौथे हाथ में कमंडल और बाकी के दो हाथों में वीणा और माला थी। ब्रह्माजी ने देवी से वीणा बजाने का अनुरोध किया। जैसे ही देवी ने वीणा का मधुरनाद किया, चारों ओर ज्ञान और उत्सव का वातावरण फैल गया, वेदमंत्र गूंज उठे। ऋषियों की अंतःचेतना उन स्वरों को सुनकर झूम उठी। ज्ञान की जो लहरियां व्याप्त हुईं, उन्हें ऋषिचेतना ने संचित कर लिया। इसी दिन को बंसत पंचमी के रूप में मनाया जाता है। 

हम हैहयवंशी में लेकर आये यह मौसम की बहार
आओ मिलकर मनाये यह बसंत ऋतू का त्योहार
इस बंसंत सभी भूले बिछड़े जोड़े हैहयवंश का नाम

आओ मिलकर मनाये यह बसंत ऋतू का त्योहार
इस बसन्त से हम सब जाने जाय बस एक नाम

 

वसंत ऋतु के पर्व का आज के परिवेश में हमारे हैहयवंश  समाज में इसके उपयोग और महता और भी अधिक बन जाती है, हम क्षत्रिय वंश से सम्बन्ध रखने के नाते हमें शिक्षा का संकल्प लेना चाहिए जिससे ज्ञान और बुद्धी का समावेश हमारे क्षत्रिय्ता के सौर्य को स्थापित करने में सहयोगी हो| आज हमारा समाज इसी कारण से पीछे है कि हमारे वंश के लोगो ने शारीरिक श्रम और साहस को तो बनाये रखा परन्तु शिक्षा और सामाजिक ज्ञान के अभाव में हम पीछे होते गए और अन्य समाज हमसे  आगे हो गए|

 

वसंत पंचमी पर्व का धार्मिक एवं वैज्ञानिक महत्व
वसंत ऋतु में पीला रंग सादगी और निर्मलता प्रदान करता है

हिंदू संस्कृति में हर रंग की अपनी खासियत है जो हमारे जीवन पर गहरा असर डालती है। हिन्दू धर्म में पीले रंग को शुभ माना गया है। पीला रंग शुद्ध और सात्विक प्रवृत्ति का प्रतीक माना जाता है। यह सादगी और निर्मलता को भी दर्शाता है। पीला रंग भारतीय परंपरा में शुभ का प्रतीक माना गया है।

1.     वसंत ऋतु का पीला रंग दिल और आत्मा से जोड़ता है

फेंगशुई ने भी इसे आत्मिक रंग अर्थात आत्मा या अध्यात्म से जोड़ने वाला रंग बताया है। फेंगशुई के सिद्धांत ऊर्जा पर आधारित हैं। पीला रंग सूर्य के प्रकाश का है यानी यह ऊष्मा शक्ति का प्रतीक है। पीला रंग हमें तारतम्यता, संतुलन, पूर्णता और एकाग्रता प्रदान करता है। 

3. वसंत ऋतु में मनुष्य का मष्तिक अत्यंत शांत और सक्रिय रहता है  

भारतीय सभ्यता में ऐसी मान्यता है कि यह रंग डिप्रेशन दूर करने में कारगर है। पीला रंग थेरपी के लिए भी उपयोगी है| यह उत्साह बढ़ाता है और दिमाग सक्रिय करता है। जो  दिमाग में उठने वाली तरंगें खुशी का एहसास कराती हैं। वसंत ऋतु में मनुष्य का  आत्मविश्वास में भी वृद्धि करता है। हम पीले परिधान पहनते हैं तो सूर्य की किरणें प्रत्यक्ष रूप स दिमाग पर असर डालती हैं। 

वसन्त रुतु के आगमन उपरांत ही हिंदू धर्म में मनाया जाए वाला होली का त्यौहार पुरे देश में मनाया जाता है| लोक राग-रंग का वसंत पर्व लोक गीत और, संगीत  का वाहक है|

पीले फूलों की वर्षा, शरद ऋतुओँ की फुहार,
सूरज की चमकीले किरणे, खुशियों की बहार,
पीले चन्दन की खुशबु, अपनों का सारा प्यार,
मुबारक हो सबको, बसंत पंचमी का त्योहार।

बुधवार, 6 जनवरी 2021

सामजिक चरित्र का निर्माण

 

 

सामजिक चरित्र के आवश्यकता 

किसी भी समाज के संगठन एवं सफल निर्माण और क्रियानावन के लिए समाज में  एक उच्च चरित्र का होना आवश्यक है| सामाजिक चरित्र किसी भी समाज के लिए एक स्थाई  और सुद्रिढ चरित्र है। सामाजिक संरचना के हम सभी सहभागी और प्रतिभागी है| हमारी ब्यक्तिगत चरित्र ही सामाजिक चरित्र को चरितार्थ करती है अत: सामाजिक चरित्र ही समाज की आधारशिला है। यही वह गुण है जो सर्व समाज  में समाज को एक सम्मानजनक स्थान व् पहचान दिलाता है। हमारी  ब्यक्तिगत चरित्र  ही समाजिक चरित्र का भी  पर्यायवाची है। सामाजिक चरित्र के निर्माण के लिए हमारे बहुत से ब्यक्तिगत चीजे जैसे शिक्षा, संस्कार और कार्य – ब्यवहार, सामाजिक जागरूपता, अच्छाई-बुरे का ज्ञान आदि  अनिवार्य  है। जिसमे हमारे ब्यक्तिगत संस्कार,शिक्षा और ब्याक्तितव का प्रमुख स्थान है। सामाजिक ज्ञान और शिक्षा चरित्र निर्माण का प्रमुख साधन है वही संस्कार सामाजिक समूह को एक सूत्र में बाधने और संगठित करने का साधन भी है| सामजिक चरित्र व्यक्तिगत चरित्र पर पूर्ण रूप से  निर्भर है। समाज व्यक्तियों के मिलाने और जुडने से मिलकर बनता है, इसलिए व्यक्ति के प्रत्येक क्रियाकलाप का सीधा प्रभाव समाज पर पड़ता है। अतः उसकी अच्छाइयों और बुराइयां दोनों ही समाज के निर्माण में अहम महत्व रखता है| व्यक्ति के चरित्र निर्माण में उसका परिहवेश(रहन-सहन) और स्वभाव का विशेष महत्त्व होता है| जबकि स्वभाव का निर्माण संस्कारों से होता है। ये संस्कार ही होते है जो मनुष्य के जीवन को सुखी, संतोषप्रद और अनुशासित बनाते है। संस्कार निर्माण एक लम्बी प्रक्रिया है जो मनुष्य के को जीवन उपरांत  अपने वातावरण खासकर परिवार और आस-पास के वातावरण  से शुरू होकर समाज में हो रही गतिविधियों से प्राप्त होती है| यही संस्कार परिमार्जित होकर चरित्र की विशषताओं का रूप धारण करते रहते है। संस्कारों पर परिवेश, अभ्यास, आत्मावलोकन एवं स्वम् समाज का महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। शिक्षा संस्कारों को सुध्रिंड रूप से एवं सुन्दर व् स्वस्थ बनाने का मुख्य साधन है।

शिक्षा का अर्थ सिर्फ जीविकापार्जन या नौकरी के लिए नहीं करना है और नहीं केवल डिग्री प्राप्त  करने के लिए बल्कि शिक्षा का सही अर्थ अच्छाई और बुराईयों के  ज्ञान के साथ हमें जीवन जीने की कला और जागरूपता का साधन भी देता है| सामजिक  ज्ञान और शिक्षा संस्कार की जननी है, यह मात्र अतिशयोक्ती नहीं है| सामाजिक  शिक्षा एक ऐसा साधन है, जिसके माध्यम से मनुष्य ज्ञान द्वारा  अच्छाई और बुराईयोंमें अंतर के साथ ब्यवहारिक संस्कार और सभ्यता सिखाता है| आवश्यक शिक्षा हमें गुरुकुल (विद्यालय) के गुरुजनों के सानिध्य और ज्ञान से प्राप्त होती है जिससे हमें यही ज्ञान और जीवन के अनुभव संस्कार को बनाने में सहायक होते है| ब्यक्ति के सामाजिक ज्ञान  और शिक्षा उसके कार्यों एवं सोच का सीधा प्रभाव समाज के निर्माण पर पड़ता है| ऐसे में शिक्षा की भूमिका किसी भी समाज के लिये महत्वपूर्ण होती है| स्वस्थ सामाजिक  शिक्षा व्यक्ति में स्वस्थ संस्कार उत्पन्न करती है। इन्ही संस्कारों से व्यक्तिगत चरित्र का निर्माण होता है, यही चरित्र समाज के लिए सामजिक चरित्र कहलाता है। यही सामजिक शिक्षा है जो व्यक्तिगत चरित्र को सामजिक  चरित्र में बदल देती है। ब्यक्तिगत चरित्र ही समाज में समाहित होकर चरित्र के  परिपक्वता का निर्माण करता है। क्योंकि व्यक्ति स्वम्  में ही समाज को पूर्ण करता है। जैसा कि रहीम जि कहते है

 

जो रहीम उत्‍तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग, (चंदन विष व्‍यापत नहीं, लपटे रहत भुजंग). व्यवहार में इसकी केवल पहली पंक्ति ही बोली जाती है. जो लोग उच्च और दृढ़ चरित्र वाले होते हैं उन पर बुरी संगत का कोई कुप्रभाव नहीं पड़ता. चन्दन के पेड़ का उदाहरण दिया गया है जिस पर सांप लिपटे रहते हैं लेकिन उस में विष नहीं फैलता”

 

प्राकृतिक रूप से समय के साथ -साथ सामाजिक जीवन का स्वरुप बदलता रहता है लेकिन समाज  समाज का चरित्र नहीं बदलता है|  समाज के स्वरुप में यह परिवर्तन मूलतः ब्यक्ति के कार्य और आचरण के कारण  प्रभावित करने वाले चीजों  के आधार पर अच्छा या बुरा किसी भी रूप में यह परिवर्तन हो सकता है। परिवर्तन व्यक्ति के चरित्र को भी अपने अनुरूप ही प्रभावित करने की क्षमता रखता है। ऐसे में समय के साथ परिवर्तन शिक्षा (अच्छा या बुरा का ज्ञान)  ही एक मात्र साधन है जो मनुष्य में विवेक शक्ति उत्पन्न करके उसके नैतिक चरित्र को दृढ़ता प्रदान करती है। मनुष्य के जीवन में शिक्षा की निरंतरता ही समाज समर्पित व्यक्ति का चरित्र निर्माण करनेकी शक्ति रखती है| 

“आपके चेहरे पर लगी कालिख औरों को दिखती है आपको नहीं. आपके चरित्र पर धब्बा आपको स्वयं नहीं दिखता, औरों को दिखता है”

 

 

यह कदापि माने नहीं रखता है कि मनुष्य का वातवरण जैसे वह क्या पहनता है, क्या खता है ,कहाँ रहता है। अत्यधिक महत्त्व पूर्ण तत्व उसका ब्यवहार और आचरण होता है जो उचित माध्यम और सही तरीके से ग्रहण की गयी सामजिक शिक्षा ही है जिसके द्वारा वह अपने  वातावरण को ऊतम और सार्थक बना सकता है|स्वस्थ और अच्छी ज्ञानवर्धक  शिक्षा से ही एक उत्तम और प्रभावशाली चरित्र का निर्माण होता है ,जो ब्यक्तियो के समूह से मिलकर एक  परिवार का निर्माण करता है ,और यही स्वस्थ और सुन्दर परिवार से स्वस्थ और सुन्दर समाज का निर्माण होता है| 

 

 

 

“उज्ज्वलता मन उज्जवल राखे, वेद पुरान सकल अस भाखैं. चरित्र की शुद्धता से मन भी उज्ज्वल रहता है”

 

यह सत्य है कि हर ब्यक्ति  का अपना  व्यक्तित्व होता है जो उसे अपने को दूसरों से अलग करता है, वही मनुष्य की पहचान है। । परन्तु मात्र ब्याक्तितव के विभिन्नताओ के कारण मनुष्य एकाकी रहकर कठनाईयों से आसानी से निपट नहीं सकता है और ना सार्वजानिक जीवन में सफल हो सकता है| यही कारण है की सामान विचार धारा और संस्कार को मानने वाले ब्यक्तियो द्वारा अपने अपने अनुसार समाज की निर्माण होता रहता है|

यह भी सच है की जैसा प्रकृति का यह नियम है कि एक मनुष्य की आकृति व्  रंग-रूप एक दूसरे से भिन्न है। आकृति व्  रंग-रूप का यह जन्मजात भेद यही तक ही सीमित नहीं है यह भेद उसके स्वभाव, संस्कार और उसकी आदतों में भी वही असमानता रखता है| किसी एक समानता के कारण ब्यक्तियो द्वारा अवश्य ही समाज की स्थापना कर ली जाय परन्तु यदि सभी के चरित्र का निर्माण सुध्रिड नहीं है तो समाज कभी भी एक होकर सफल नहीं हो सकता है|प्रकृतिके द्वारा प्रदान इस विभीनातो के गुण ही सृष्टि का सौन्दर्य है। जिस प्रकार प्रकृति हर पल अपने को नये रूप में बदलती रहती है जिसका प्रभाव को हम बिना किसी भेद-भाव को सहर्ष स्वीकार कर लेते है| हमें अपने सामजिक जीवन में भी होने वाले परिवर्तन को भी समय और परिस्थिति के अनुसार स्वीकार करना चाहिए| कार्य – विचार और सोचने की क्षमता सभी ब्यक्तियो में एक सामान नहीं हो सकती है पर यदि ब्यक्ति का चरित्र उत्तम है तो यह सभी विभिन्नताओ के बावजूद हम सामाजिक जीवन को स्थापित करने में सफल हो सकते है|साथ चलने और एक-दूसरे के सहयोग की भावना के साथ यदि ब्यक्ति में समर्पण का भाव रहे तो सामाजिक जीवन और यापन में कोई भी टकराव या भेद नहीं हो सकता है|ब्यक्ति  के किसी भी एक कार्य करने के शैली या तरीके में अंतर हो सकता है परन्तु यदि उसी कार्य के करने के तरीके बहुत से है तो हम मिलकर एक प्रयास से सबसे अच्छे और सरल तरीके द्वारा आसानी से सफलता प्राप्त कर सकते है|

धन गया कुछ नहीं गया, स्वास्थ्य गया कुछ गया, चरित्र गया सब कुछ गया. अर्थ स्पष्ट है”

चरित्र ही वह धूरी है जिस पर मनुष्य का जीवन सुख शान्ति और मान – सम्मान की दशा  अथवा दु:ख, दरिद्रता, अशान्ति, असन्तोष की प्रतिकूल दिशा में गतिमान होता है, तब क्यों न उज्जवल चरित्र के लिए उज्जवल संस्कारों को कंजूस  के धन की तरह बटोरना शुरु कर दें। इसके लिए उज्जवल विचारों को ग्रहण करना होगा। अकल्याणकारक दूषित विचारों को एक एक क्षण के लिए भी पास न फटकने दें। वेद भगवान का आदेश है (ऋग्वेद) ‘‘आ नो भद्र: क्रतबो भन्तुविश्वत:’’ सब ओर से कल्याणकारी विचार हमारे पास आए-हमारा जीवन मंत्र बन जाए।

संस्कारों का प्रारम्भ अभ्यास से होता है। वस्तुत: मनुष्य अपने संस्कारों का दास होता है। संस्कार बहुत ढीठ प्रकृति के होते हैं। ये जल्दी नहीं बदलते।

संस्कार निर्माण की प्रक्रिया में निम्नं चीजे महत्वपूर्ण है -

1. विचार

2. विचार की पुनरावृत्ति (बारम्बार चिन्तन)

3. विचारों का कर्म से क्रियान्वयन (परिवर्तन)

4. कर्म की पुनरावृत्ति (अभ्यास)

5. आदत बन जाना (पुनरावृति)

7. संस्कार- (स्वभाव में परिणित हो जाना)

 

 

संगत से सब होत है, वही तिली वहि तेल, जांत पांत सब छोड़ के पाया नाम फुलेल. संगत से व्यक्ति का चरित्र बदल जाता है. तिली के तेल को जब इत्र की संगत मिल जाती है तो उस का नाम तिली का तेल न रह कर इत्र हो जाता है.

 

 

 

बुधवार, 3 जून 2020

जीवन निर्माण के तीन मंत्र


जीवन निर्माण के तीन मंत्र

     प्रकृति की हर अनमोल चीजो में विशिष्ट गुणों की तरह मनुष्य का जीवन भी अनेक गुणों के साथ अत्यंत ही रोमांचक और संघर्ष शील प्रक्रिया का धोतक है\ प्रकिरती की हर चीज को मनुष्य  की तरह ही संघर्ष में शुख  और दुःख दोनों का सामंजस्य है| प्रकिर्ति के अन्य चीज और जीव अपने शुख और सुख को प्रकिर्ति के ही बनाये नियम और साधनों से पूर्ण कर लेता है क्योकि उनमें मनुष्य की तरह गुण जैसे बुधि,, सोच, शक्ति और निर्णय करने की अनमोल शक्ति नहीं है| मनुष्य प्रकिर्ति के द्वारा पाए गए इन गुणों का  उपयोग कुशल,  सफल और सुन्दर बना सकता है| प्रक्रति द्वारा प्राप्त इन गुणों को हम मनुष्य जीं के तीन मंत्र द्वारा सफल और उज्वल बना सकते है यदि हम इस पर विचार पूर्वक सही तरीके और मन से करे| ये तीन गुण शिक्षा या ज्ञान, अनुभव या सिखने की लगातार चाहत और स्वंम का सगुण जिसे हम बहुत जल्दी नहीं पहचान सकते है क्योकि यह कही से या किसी के द्वारा नहीं मिल सकता है| सगुन जिसे हम इंगलिश में टैलेंट कहते है| इन सभी में शिक्षा को कही से भी पाया जा सकता है यह स्थान्तरित होता रहता है और सतत ग्रहण करने की प्रक्रिया है| अनुभव या शिख हम लगातार कार्यों को करते रहने से प्राप्त होता है यह स्थान्तरित नहीं हो सक

     ता है इसे हम दूसरों से सीख तो सकते है पर पा नहीं सकते है हम कही से भी अनुभव को ग्रहण कर सकते है  परन्तु तीसरा गुण (टैलेंट) इन दोनों चीजों  से भिन्नं ना तो स्थान्तरित कर पाया जा सकता है और नहीं इसे ग्रहण किया जा सकता है| यह भी सच है की हर मनुष्य में कुछ ना कुछ गुण होता ही है यहाँ इंगलिश में प्रचलित टलेंट जिसमे गुन का भाव एक  साथ सनुग और अवगुण में होता है परन्तु हम तलेंट के लिए सगुन का ही समान्त्रित अर्थ लेते है| हम इस सगुण को कैसे जीवन में पाए इसके लिए हम बहुत ज्यादा कुछ नहीं करने की जरुरत है जब हमारा ज्ञान या शिक्षा का विस्तार और बढ़ रहा होता है और हम अनुभव के द्वारा बहुत कुछ जान लेते ई तो इस दौरान अपनी विशिष्ट क्षमता या पर्विर्ती के द्वारा कुछ कार्य को अपने व्यहार के साथ कई बार करते है जो एक सच्चे और अच्छे कार्य के लिए हो रहा है तो हमें यह समझ लेना चाहिए यही गुण हमारा सगुण या टैलेंट है| मनुष्य इसी सगुण और टैलेंट को जब ठीक से पहचान नहीं पाता  तो वह लाख कोशिश के बाद भी अपने कार्य जीवन में सफल नहीं हो पाता  है और फिर हम प्रकिर्ति के साथ समय और भाग्य को मान कर समझौता कर लेते है| यह प्रकिर्ति की बनाई हुयी चीज है जो केवल प्राणी मात्र में ही नहीं होती परन्तु अन्य जीवो फल-फुल पेड में भी होते है और सभी अपने अपने सगुण के ही नाते जाने और पहचाने जाते है|

सामाजिकता में धार्मिक महत्व


सामाजिकता में धार्मिक महत्व

       प्राचीन सामाजिक संगठनो की संगठनात्मक और सफलता का यदि हम अध्यन और विवेचन करे तो पायेंगे कि समाज की परिकल्पना अत्यन ही प्राचीन था और जब समाज का उदय हों रहा था तब भी हर समाज को अपना एक सामाजिक संरचना थी जोकि आज के सामाजिक परिवेश से कही मजबूत और सफल थी| समाज और सामाजिकता का स्वरुप किसी ना किसी रूप में सभ्यता के विकास और संचरना के लिए हमेशा ही रहे| हम चाहे कितना भी सामाजिक विकास और आधुनिक हों जाय| प्राचीन काल के सामाजिक स्वरुप को हम यदि नजदीक से देखे तो पायंगे कि जो आवश्यकता मनुष्य को तब थी उसमे कोई भी बहुत बदलाव नहीं हुआ है, मनुष्य प्रकृति के रचना एक सजीव और चलायमान प्रानी है उसकी आवश्यकताए अत्यंत है, मनुष्य में सभ्यता का विकास जैसे जैसे होता गया उसकी सोच और विचार के बदलाव ने अवश्य ही समाज के बंधन से मुक्त रहना कहता है पर वह संभव नहीं है क्योकि हम कितना भी आधुनिक बन जाय, जीवन के संस्कार और कार्यों में हमें कही ना कही समाज की आवश्यकता पडती ही है, और हममे से अधिकतर सामाजिक लोग को जीवन के उस पड़ाव में इसकी कमी पडती है और हम समाज के तरफ देखते है, कि यदि अपना भी एक सामाजिक संगठन होना चाहिए| प्राचीन सामाजिक संगठनों ने समाज को एकत्रित और संगठित करने के लिए धर्म और कर्म का बहुत योगदान होता था, क्योकि समाज में धार्मिक कार्यों और मूल्यों की मान्यताये अधिक थी लोग जीवन के हर पहलू में धर्म और पूजा पाठ का सहारा लेते थे, यंहा तक की समाज के सभी कार्य बिना धार्मिक पूजा पाठ के शुरू ही नहीं किये जाते थे| मनुष्य अपने अपने समाज के बनाए गए धार्मिक बंधनों का सहर्ष स्वीकार करते हुए उसका पालना करता था| यंहा तक की समाज में कई बीमारियों में लोग केवल धर्म और कर्म का हेई पालन करते हुए इसका इलाज़ करते थे| समाज के सारे कार्य धर्म के तहत समय और मुहर्त में किये जाते थे| समाज का संगठन उस समय इसी लिए सफल था क्योकि के धार्मिक बंधन और मान्तातये सभी को सामान रूप से स्विक्कर थे| समाज में धीरे धीरे समय और परिस्थिति ने परिवर्तन होते गए और समाज का स्वरुप और कार्य शैली में भी परिवर्तन आते गए| आज के परिवेश में हम जन समाज के लिए एक सामाजिक संगठन की परिकल्पना करते है तो यह कार्य बहुत ही कठिन प्रतीत होता है| 


       पुरातन और आधुनिक सामाजिक संगठन में सबसे बड़ा अंतर समाज के लोगो में विचारों का तेजी से बदलाव और एकरूपता की कमी लगती है जो स्वाभविक भी है पहले हम सामाजिक नेतृत्व करने वाले के प्रति संस्कार के कारण कभी भी सीधे विरोध और असहमति नहीं होती थी| जो भी सामाजिक नियम और कार्य होते थे सभी के लिए सामान था, उच्च-निच, छोटे=बड़े, धनी=निर्धन, शिक्षित – अशिकिषित किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं था इस कारण से प्राचीन सामाजिक संगठन सफल थे| इन सबसे से बड़ी जो बात प्राचीन काल जो सामाजिक ताने बाने को एक दूसरे से बाधे रखती थी वह धार्मिक तथा पूजा पाठ जिसे हम अपने अपने समाज के लिए ईस्वर के रूप में एक स्थान देते हुए उसके प्रति सामाजिक जागरूपता और सामाजिक भय, जिसके कारण हम एक दूसरे से बढे रहते थे| मनुष्य और समाज कितना भी विकास और आधुनिक हों जाय समाज और सामाजिक आवश्यकता कभी भी खत्म नहीं हों सकती है, आज भी हमें इसकी जरूरत दिखाई दे रही है और हम सभी अपने अपने समाज को संगठित और विकसित करने में किसी ना किसी रूप लगे है| उक्त विचार को लिखना उसी कड़ी में हमारा एक प्रयास है कि हम कैसे धार्मिक और पूजा पाठ के पद्धिति को पुन: से अपने सामाजिक स्वरुप को गति प्रदान करने और संगठित करने में प्रयोग करे| यह कोई नयी प्रयोग नहीं है हम सभी समाज में बहुत से सामाजिक संगठन विभिन्न ईस्वर के पूजा पद्धिति को अपना कर एक सामजिक संगठन बना रखे है जो प्राचीन सामाजिक संगठन के सभ्यता पर विकसित है| आप सभी बहुत से संपदाय और सत्संग के नाम से संस्थाए जैसे राधा स्वामी सत्संग समाज, राधा कृष्ण सत्संग, श्री वैष्णव समाज, साईं सत्संग अदि अदि| इन सभी समाज के लोग एक दूसरे के प्रति धार्मिक भावनाओं के कारण एक किये रहते है और वो सभी इस समाज से जुड़े है संगठित है| हमारा भी उद्देश्य अपने समाज को संगठित करने के लिए यही धार्मिक भावना का लाभ उठा कर समाज को एक दूसरे से जोडते हुए संगठित करने का एक प्रयास है| 


       हमें किसी अन्य धार्मिक और रूप की आवश्यकता नहीं है क्योकि हमारा समाज के वंश परम्परा ही धर्म और कर्म पर आधारित है यह तो हम सभी का दुर्भाग्य है की हम आज तक इससे अनिभिज्ञ रहते हुए इसका लाभ नहीं उठा पा रहे है| हमारा सभी का यह प्रयास होना चाहिए जिस समाज के पास महान चंद्र वंश और प्रतापी हैहयवंशी महाराज जो की साक्षात श्री हरी विष्णु के अंश है के वंशज होते हुए भी आज हम बिखरे और असंगठित है| हम एक प्रयास अपने धार्मिक और पूजा – पाठ के स्वरुप को एक बार पुन: से स्थापित करते हुए इसके प्रचार और प्रसार कर श्री सह्स्त्राबहु सत्संग की स्थापना करे और समाज में इस सत्संग के मध्यम से समाज को जोडने का प्रयास करे, अपनी सामाजिक-धार्मिक मान्यताये समाज में चर्चा करे| इस सत्संग की सफलता हम समाज के महिला और बच्चो के बिच में लाकर अधिक सफल हों सकते है क्योकि अपने  समाज में महिलाओ के पास आज भी धर्म से जुड़े भावनाये है जिसे हम प्रयोग कर इसे सफल कर सकते है. इसका लाभ हम एक तरफ महिलाओ के समय के सदुपयोग से पा सकते है दूसरी तरफ सामाजिक बच्चो को अपने धार्मिक एयर इतिहास से आसानी से परिचय करा सकते है जो भविष्य में अपने समाज के एक सामाजिक ब्यक्ति बनगे जिसका लाभ आने वाली पीढ़ी को मिलेगा और हमारा सामाजिक संगठन और मजबूत और शशक्त हों जाएगा| हमें इस सच को स्वीकार करने में कोई भी हिचक नहीं आज हमारे समाज के बच्चे ना तो अपने धार्मिक संस्कार से परिचित है नाही अपने वंश-जाति से जिसले कारण जब वह यह समझाने को तैयार होते है उनकी अभिग्यांता उन्हें उलझन और अनिसिचिता में दाल देती है|


       इसके क्रियान्वन और सफलता के लिए समाज के कुछ ऐसे लोगो की आवश्यकता है जो अपने समाज के धार्मिक, संस्कारिक और इतिहास के ज्ञान के साथ उसे समाज को कैसे पहुचाया जाय पर सहयोग देना चाहते है, जिनमे वाक्-पटुता, चोजो का ज्ञान और सबसे धार्मिक रूप से प्रस्तुत करने की कला हों| हमें निश्चित ही यह विशवास है की ऐसे बहुत से लोग समाज में है जो आपने इतिहास और धार्मिक रूचि के साथ उन्हें प्रचार प्रसार कर सकते है| हम उन सभी सामाजिक ब्यक्तियो से निवेदन करंगे की वह सभी एक प्लेटफार्म पर एकत्र होते हुए इस सहस्त्रबाहु सत्संग की धार्मिक परिकल्पना को साकार करते हुए समाज को संगठित और विकसित करने में सहयोग प्रदान करंगे| इस कार्य के लिए हमारे पास पर्याप्त मात्रा में सामग्री उपलब्ध है जिसके माध्यम से हम इस सामाजिक सत्संग को सफल बना सकते है| इसके आयोजन और क्रियान्वन में बहुत ही कम धन और समय का खर्च है और धार्मिक कार्य के कारण इसमे सभी का सहयोग भी मिलने की उमीद भी है| यह हमरा एक प्रयास है शेष समाज के लोगो पर निर्भर करता है की कितना सहोग इस योजना में मिलता है यह एक रचनात्मक आन्दोलन है| आशा हेई नहीं विश्वास है की आप सभी सामजिक विशेष कर ज्ञानी और धार्मिक आगे बढ़ते हुए इसकी सफलता के लिए संपर्क करंगे|’
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सामाजिक उत्थान के लिए स्थान परिवर्तन एक पूर्ण विकल्प


सामाजिक उत्थान के लिए स्थान परिवर्तन एक पूर्ण विकल्प


        प्रकृति हमें परिवर्तन का सच्चा रूप हमेशा दिखाता रहता है. परन्तु हम सभी प्रकृति के इस रूप को जानते हुए भी हम इसे अपने सामाजिक जीवन में नही ढाल पाते है| प्रकृति जिस प्रकार मौसम के रूप में हमें जाड़ा, गर्मी और बरसात से, समय को दिन और रात से, संघर्ष को अमीरी और गरीबी से, अनुभव, एह्शाश को शुख और दुःख से जीबन को जन्म और मौत से रूबरू करता है और हम इस परिवर्तन में अपना पूरा जीवन समाज के बिच व्यतीत करते रहते है| समाज के रूप में हम अपना भाग्य और किश्मत मानकर सब्र करते है और जीवन बदलते रहते है| हम इस सामाजिक परिवर्तन के लिए कभी नहीं सोचते है जबकि दुनिया में हर चीज परिवर्तित और समय के साथ बरहती रहती है और परिवर्तन के साथ  प्रगति और विकास होता है अत: हमें प्रकृति के इस परिवर्तन के रूप को समझाने की आवश्यकता है यदि हम या हम अपने समाज के उत्थान के बारे में सोचते है| उक्त कथन का अभिप्राय बस इतना  है  कि हमें अपने जीवन, कार्य, स्थान को भी परिवातित करने का प्रयास करना चाहिए ताकि नयी सोच, नयी कार्य और नयी जगह के स्वरुप में 

      हम अपने और समाज के उत्थान में सहयोग कर सकते है| इसमे किसी प्रकार की संदेह नहीं है की हम परिवर्तन के साथ अपना और साथ साथ अपने समाज का विकास बहुत ही आसानी से कर सकते है| इसके एक नहीं संकडो उदारहण आप के ही आस – पास मिल जायंगे| हमें अपने पास-पडोश में ही कई परिवारों में यह देखने को मिलता है की एक संगठित परिवार का कोई बच्चा जब पढ़-लिखाकर नौकरी चाकरी या व्यसाय हेतु किसी अन्य जगह पर जाता है तो उसके सामाजिक जीवन में एक बड़ा परिवर्तन देखने को मिलता है जैसे उसका रहन-सहन, कार्य शैली, और व्यवहार जिसे हम सभी यदि उत्तम है तो इसे सपोर्ट करते है और उसके और उसके सामाजिक विकास को अच्छा मानते है और फिर धीरे धीरे उस संयुक्त परिवार के भी बदलाव आने लगता है| इसमे किसी भी प्रकार की बनावट नहीं है इस प्रकार एक परिवार को बदलाव का लाभ मिलाने से दूसरे परिवार भी प्रभावित होते है| इसी कड़ी मेरा इस लेख लिखने के पीछे सिर्फ यही मंशा है की जिस प्रकार एक व्यक्ति  के परिवर्तन से एक परिवार बदल सकता ही तो क्यों नहीं हम इस परिवर्तन के बारे में कुछ आगे बढ़ कर सोचे| हमें अपने और अपने सामाजिक विकास के लिए यदि अपना कार्य और स्थान बदलने की आवश्यकता लगे तो इससे ज़रा भी हिचक ना करे क्योकि कभी कभी इंतज़ार और सामाजिक डर अपने और  अपने समाज के विकास में बाधा बन जाती है| जीवन में संघर्ष हर जगह है, जीवन हर जगह चल सकती है पेट हमें अधेरे और अनजान जगह पर भी खाने के लिए कार्य आवश्यकता अनुसार चुनने को अवसर दे ही देती है, हम किसी भी मजबूरी में किसी अनजान जगह पर मेहनत मजदूरी कर अपना जीवन आसानी से चला सकते है| स्थान परिवर्तन ग्रहों के चाल की तरह ही फल भी देते है अत: हमें यह एक प्रयास अवश्य करना चाहिए जबकि हम जिस जगह पर कई वर्षों, पीढीयो और समय से रह रहे हो और जीवन स्थिर हो गया हो कार्य – रोजगार ठीक ना चल रहा हो, जीवन के इस संघर्ष को नया रूप और नयी प्रगती के लिए स्थान परिवर्तन एक सही और उचित कदम है| 

       इस प्रगति में बल, बुद्धी और ज्ञान अवश्य ही महत्व राकेट है| इसी लिए समाज के विकास में शिक्षा और ज्ञान का महत्व हमेशा माने रखता है| हमें इस बारे में विचार करना ही होगा यदि आज हम समूर्ण शिक्षा और ज्ञान नहीं ले सके तो हम जब स्थान का अपरिवर्तन करे तो चाहे जो भी जीविका का साधन चुने अपने आने वाली पीढ़ी को ज्ञान के साथ शिक्षा के महत्व तथा संस्कार को जरुर पूरा करे इसके लिए थोड़ा कष्ट भी आज यदि होता हो तो कोई बात नहीं पर हमारा आने वाला कल और जीवन अवश्य प्रभावित होगा| प्रकृति के परिवर्त्तित नियमों की ही तरह ही अपने पीढ़ी की चली आ रही कार्य-व्यव्स्सय और रूप-तरीके को भी परिवर्तित करने की आवश्यकता है जो समय के मांग और सामर्थ अनुसार बदला जाना चाहिए तभी अपने और समाज के प्रगति में सहायक बन सकते है| स्थान परिवर्तन की सबसे बड़ा फ़ायदा यह है की हम नयी जगह जब रहते है तो नए लोगो के बीच हमारी अपनी अपनी  जीवन-यापन, क्रय-शैली और अपने अंदर का डर यह नहीं रहता है की हमें कोई जानता है जो यह कार्य कैसे करे, या कोई जान जाएगा की हम सफल नहीं हुए तो जग-हाशाई या शर्म होगी, हम खुले विचार और मन से कोई भी कार्य व्यस्हाय जीवन यापन और आने प्रगती के लिए कर सकते है और यदि समय के साथ किश्मत का साथ मिलता है तो एक बड़ा परिवर्तन जीवन में देखने को मिलते है फिर जब सफलता मिल जाती है तो हर चीजे अच्छी होती चली जाती है| जीवन को सच्चाई के साथ इमानदारी से यदि हम करते है तो हम कोई भी कार्य करे हमें सफलता मिलेगी. जीवन जीने के लिए कोई भी कार्ये अच्छा या बुरा छोटा या बड़ा नहीं होता| छोटे से छोटा कार्य कर के ही लोग आगे बढ़ाते है जो सही माने में स्थिर और सुध्रिड और स्थिर होता है| हमें इसके लिए समाज में सैकरों उदहारण मिल सकते है| इस परिवर्तन में शिक्षा का महत्व एक बड़ा रोल अदा करता है, हमें अक्क्सर अपने आस पास के समाज के परिवारों में देखने सुनाने को मिलता है की उस परिवार या उनका लड़का एक दबे सहर में डाक्टर या इंजीनियर या वकील या ठेकेदार या एक बड़ा व्यसायी   है| शिक्षा में नौकरी का योगदान का महत्व सभी जानते है जब हम नौकरी में होते है तोयह परिवर्तन समाज को विकास में आगे बढ़ाने में अपना योगदान कर रहा है क्योकि किसी को भी नौकरी अपने घर पर या आस पास मिले यह बहुत कम संभव है, और जीविका के लिए यदि नौकरी कर रहे है तो हम इस स्थान परिवर्तन को स्वीकार कर ही लेते है तो फिर हम अपने कार्य या व्यवसाय को करने के लिए स्थान का परिवर्तन  क्यों नहीं कर सकते है| 

      हमें अपने रुधध्वादी विचार और हठ को छोडना ही होगा तभी हम अपना और समाज का विकास सही माने में कर सकते है| जिस प्रकार हम सफल होने पर हम और हमारा परिवार खुश और सुखी महशुस करता है ठीक हम जिस परिवेश में और अपनो के बीच रहते है उस समाज के विकास और शुख सम्पन्ता के बारे में  भी सोचना चाहिए| जितना महत्व हम परिवार को समझते है उतना ही महत्व हमें समाज के लिए भी सोचना होगा क्योकि हमें समाज की उतनी ही आवश्यकता है जितनी अपनी और अपने परिवार की, जब हम परिवार को आगे बढाने और संबंधो के बारे में सोचते है इसके महत्व को समझ आता है फिर अपने जैसा और अपने लिए दुसरा सम्बन्ध पाने में मुश्कित होती है यही सामाजिक जीवन की व्यवस्था है हर परिवार को दूसरे परिवार की जरुरत होगी| इस लिए समाज का होना अनिवर्य है, तो हमें अपने विकास के साथ अपने समाज के विकास के महत्व को समझना होगा और सामाजिक परिवर्तन के बारे में भी सोचना होगा| जिससे हमारा भी समाज एक विक्सित समाज बन सके|  जिस प्रकार हर कार्य की अच्छाई और बुराई होती है इस सामाजिक परिवर्तन में स्थान बदलने के कारण हम इसके अच्छाई को अपनाये और परिवर्तन और विकास के साथ दूसरों के साथ और संपर्क को ना तो छोड़े और नाही उन्हें भूल जाय, बल्कि हम उन्हें भी साथ लेकर चले और अपने संस्कारो को सुदृण करते हुए एकता और विकास के सामाजिक  प्रगति और संगठन को शशक्त बनाने में हम सभी भागीदार बने|


शेयरिंग इज थे बेस्ट शोसल मेडसिन


शेयरिंग इज थे बेस्ट शोसल मेडसिन

      आज पूरा समाज किसी ना किसी सामजिक बीमारी का शिकार है, यह बीमारी व्यक्ति, परिवार के साथ साथ समाज और देश को भी बीमार कर रहा है| कहते है एक स्वस्थ  शरीर में ही स्वस्थ दिमाग और सफलता का सूत्र रहता है तो जब तक समाज का हर व्यक्ति स्वस्थ नहीं होगा हम स्वस्थ समाज की कल्पना नहीं कर सकते है| हमारे और हमारे समाज के स्वस्थ सेहत के लिए परस्पर एक दूसरे का सवांद स्थापित करना अति आवश्यक है क्योकि बहुत सी बीमारिया जानकारी के अभाव में हम उस उपाय या चीज को नहीं  कर पाते है जिसके लिए हम लाख रुपया पैसा खर्च कर दे या प्रयास कर ले सफल नहीं हो पाते है| इसी प्रकार स्वास्थ के अतरिक्त बहुत से दिन प्रति दिन के सामाजिक परेशानी मनुष्य के जीवन में बीमारी के रूप में आती रहती है जिससे के उपाय ढूढने और सफल होने के लिए हम अपना बहुमूल्य समय इधर उधर के भाग दौर और उपायों में खर्च कर देते है पर फिर भी हमें सफलता कम ही मिलती है| किसी भी कार्य की सम्पूर्णता बिना अनुभव के नहीं हो सकती है हम चाहे कितना भी ज्ञानी और जानकार हो वह उस कार्य और समय के लिए तो ठीक है पर जब समस्या नहीं बन रही होती है तो किसी ना किसी का उस कार्य के प्रति अनुभव् या स्वंम का अनुभव ही  उस कार्य की सफलता का पूरक बनता है| 

    हम अनुभव के महत्ता को कम नहीं कर सकते है| अनुभव हमें बिना शेयरिंग, आपस के जानकारी के अदान-प्रदान, परसपर संपर्क और बात-चीत के नहीं मिल सकते है, जितना ही हम ज्ञान के साथ-साथ  अपने अनुभव को साझा करंगे या आदान प्रादान करंगे हम समस्या के समाधान को उतनी ही आसानी से हल कर सकते है| हम लाख बीमारी से परिचित हो हमें सही और अच्छे  डाक्टर का पता यदि नहीं होगा हम उस बीमारी का सही से इलाज नहीं करा सकते है हम यदि उस बीमारी को एक दूसरे से शेयर करे तो हो सकता है की किसी को उस बीमारी के लिए सही इलाज हेतु सही डाक्टर का पता चल जाय और हम ठीक हो जाय| क्योकि किसी दूसरे का उस बीमारी  के में पाया गया समाधान हमें उसके द्वारा मिल सकता है और यह प्राय: पाया जाता है की बहुत से लोग सही डाक्टर के संपर्क में ना आने से इलाज में देर हो जाता है और उनका पैसा और समय दोनों खराब हो जाता जबतक वह सही डाक्टर के संपर्क में आते है| सही डाक्टर मिलाने पर भी जबतक हम उससे आने बीमारी को सही तरीके से शेयर नहीं करंगे तो वह सही इलाज नहीं कर सकेगा| वैसे भी यह सच है कि हम किसी भी चीज को जबतक छिपाते रहंगे उसका हल हमें सही रूप से नहीं मिलेगा, जीवन को कुछ पहलू को छोड़ कर हमें कभी किसी चीज के बारे में अपनो से  शेयर करने में कभी नहीं हिचकना चाहिए क्योकि हो सकता है किसी ना किसी अपने जान पहचान के पास उस समस्या का समाधान हो या जानकारी हो  जिसके माध्यम से हम उस समस्या का समाधान आसानी से पा सकते हो| कई बार शेयरिंग से बड़ा बड़ा काम बड़े ही आसानी से हल हो जाते है जिसके लिए हम बहुत समय से परेशान रहते है, जैसे की हमें कही अनजान जगह दूर जाना है और हम वहा से पूरी तरह से अनजान है तो दिमाग में कई तरह के क्याल अछे बुरे परेशान करते रहते है परन्तु हम जब इसे शेयर करते रहे तो हो सकता है कोई ऐसा मिले जिसे इसके बारे में सब कुइछ मालूम हो और इसे बड़े ही आसानी से हलकर सकता हो| समाज  और सामाजिक परिवेश का सामाजिक जीवन में बहुत ही बहुमूल्य उपयोग है जो कि हमें मेडसिन के रूप में  मुफ्त में हमें शेयरिंग के माध्यम से मिल जाती है  और कभी कभी आपस के लेन – देन का सहयोग बड़े से बड़े काम को आसानी से हल कर देते है| मनुष्य और समाज में संकोच और घमंड एक ऐसी बीमारी है जिसका कोई इलाज किसी के पास नहीं है| इस बीमारी के कारण ही समाज और भी बीमार होता जा रहा है और समस्याए दिन पर दिन बढती जा रही है| 

       यह कहावत चरितार्थ है की मुफ्त में में कोई सलाह भी नहीं देता है और मनुष्य को प्यास लगाने पर पानी स्वंम नहीं मिल जाती उसे ही पानी की तलाश करनी पडती है ठीक उसी प्रकार समस्या के समाधान हम बिना शेयरिंग के नहीं पा सकते है यह एक ऐसा माद्यम है की हमें कभी कभी बड़ी से बड़ी समस्या का समाधान बहुत ही छोटे रूप में मिल जाता है जिसके लिए हम अत्यंत ही परेशान हो सकते है| समाज के हर व्यक्ति के पास पाने अपने ज्ञान और सामर्थ्य के अनुसार किसी न निसी कार्य का अनुभव रहता है जो किसी अन्य के लिए शेयरिंग के द्वारा शोसल मेडेसिंन के रूप में मिल सकता है और वह सफल हो सकता है| अनुभव के ब्बरे में हमें किसी को भी इग्नोर नहीं करना चाहिए क्योकि बहुत से ऐसे समस्या है जो देखने में छोटी है पर हम उसका हल नहीं पा सकते है और कोई दुसरा उसे आसानी से हल कर देता है| शायरिंग एक ऐसा मेडसिन् है जो हमें मुफ़ में मिल सकता है बस हमें परस्पर एक दूसरे से बात - चित के माध्यम से अपने समस्याओ को शेयर करना होता है, और हम किसी का मदद करते है तो कोई दूसरा अवश्य ही हमारे मदद के लिए खडा मिलता है|


हैहयवंश के सामाजिक निर्माण में परिवार की भूमिका

      हमारा समाज पुरातन काल से ही अत्यन ही संगठित रहा है जहा सामाजिक धार्मिक संस्कारित और परपर सहयोग की भावना समाज के हर वर्ग के परिवार में उसके उत्थान और संरचना में सहायक रही है| यही कारण है कि पुरातन परिवारों में एक जुटता और संयुक्तरूप से साथ जीने – मरने और प्यार-मोहबत कूट-कूट कर भरा रहता था| परिवार के सदस्यों के बीच एक दूसरे के प्रति समर्पण की भावना ही ईसका मुख कारण था की परिवार संगठित और सुदृण हूआ करता था, परिवार के मुखिया मुखिया की भूमिका राजा की तरह निस्वार्थ रूप से हर सदस्य के लिए सामान था जो एक बड़ा कारण था की हर सदस्य उसकी इज्जत और आदर का भाव रखता था| संयुक्त परिवार में रहने वाले कभी भी दुःख और कठनाई का अनुभव नहीं करते थे और खुशी के अवसर हमेशा दुगनी रहती थी चाहे वह कोई अवसर हो| संस्युक्त परिवार का मुखिया चाहे वह परुष/महिला कोई भी वह परिवार के हर सुख और दुःख को पहले अपना समझता था और परिवार के हर सदस्य का पूरा ध्यान रखता था परिवार में स्वत्रंतता समान रूप से हुआ करती थी जिसमे कोई भेदभाव नहीं होते थे| परिवार का मुखिया ही  निर्णय के लिए अधिकृत था और उसका निर्णय ही अंतिम होता था| सभी एक साथ थे तो सभी का सुख  दुःख सभी के लिए एक सामान था|

       इस प्रकार एक परिवार के रूप में जो संस्कार और धर्म बनते थे उसी का पालन परिवार के हर सदस्य के लिए अनिवार्य था|, और परिवार को साथ लेकर चलने के लिए योग्यता अनुसार मुखिया का चुनाव होते रहते थे| इस प्रकार किसी कार्य को संपन्न करने के लिए किसी अन्य की जरुरत परिवार को नहीं होती थी क्योकि आपस में कार्य को बाट कर लेने से सभी को आसानी होती थी, जब हाथ अधिक होते है तो कार्य आसान हो ही जाते है और इस प्रकार परिवार का हर सदस्य अपनी योग्यता और सामर्थ्य के अनुसार परिवार को चलाने में अपनी भूमिका निभाता था, आदर, धर्म और संस्कार हर सदस्य को बाधे रखता था जिसके कारण अंतर का भाव की कम और ज्यादा कार्य या क्षमता परिवार के सदस्य के रूप में कभी प्रशन नहीं थे| लेकिन यह सच है की परिवर्तन युगों के लिए होते है, और आज वह संयुक्त परिवार का दृश्य समाज से ओझिल होता जा रहा है और एक बड़ा सामाजिक परिवर्तन हो रहा है जिसमे संयुक्त परिवार के कुछ कमी और बुराई आज उसके विनाश का कारण बन रहे है| यह समय की जरुरत बनाती  जा रही है| पहले समाज में जनसंख्या और आबादी कम थी, चीजे आसानी से प्राप्त थी, सुविधा की जरुरत कम थी, यदि परिवार का एक सदस्य भी कमाता था तो परिवार की जरुरत पूरी आर लेता था, हम प्रकिर्ति के नजदीक थे और उसी पर निर्भर रहते थे, जरुरत के अनुसार आज हमें वह समय अब बदलने को मजबूर कर रहा है| आज का संयुक्त परिवार एक पीढ़ी पिता-पुत्र का ही देखने को मिल रहा है और भविष्य में परिवार पति -पत्नी या एकल भी हो सकता है जिस तेजी से हम बदल रहे है, ठीक उसी प्रकार से हमारे संस्कार भी बदल रहे है हम आज की पीढ़ी में १-२ पीढ़ी के सदस्यों को पहचान भी नहीं रहे है, और यह भी सच होगा की पिता – पुत्र  को भी ना पहचाने इसमे कोई अनोखी नहीं है| जिस तेजी से परिवार का विघटन हुआ उससे कही ज्यादा तेजी से हमारे संस्कार विघटित हो रहे है| इसका एक उदाहरण है कि पहले लोग एक दूसरे सदस्य को आमने – सामने से मिलकर श्रधा और भाव के साथ गले मिलते थे या पैर छू कर आशीर्वाद लेते थे महिलाये तो खासकर गले मिलकर भाव-विभोर होने के साथ प्यार – गम के आंशु तक निकल जाती थे वह इस लिए की कही वो एक दूसरे से कभी बिछुड  ना जाय या फिर कब मिले| प्यार और स्नेह का भाव दिलो में थे लोग समर्पण का भाव एक दूसरे के लिए रखते थे परन्तु आज क्या है हम धीरे धीरे उस श्रधा  भाव को भूलते जा रहे है आज श्रधा का भाव हेल्लो कह कर पूरा होने लगे है तथा लोग आशीर्वाद के नाम पर सर ही हिला देते है| यह भी सच है की समय की मांग अनुसार मनुष्य ने अपने जीवन-यापन को बदलने को मजबूर किया है, अब किसी भी संयुक्त परिवार को एक अकेला व्यक्ति नहीं चला सकता,  साधन और अवश्यकताए बढती जा रही है, जिसे पूरा करने में मनुष्य का सारा समय निकल जता है, साधन ने लोगो के बीच दुरिया बढ़ा दी है मनुष्य अपनी या परिवार  की जरुरत पूरी करने के लिए परिवार से दूर होता  जा रहा है ऐसे में संयुक्त परिवार का महत्त्व समाप्त होने लगे है| 

      संयुक्त परिवार के इसी विघटन के नाते आज समाज में अनेक प्रकार के बुराई और भ्रष्टाचार फ़ैल रहे है| इन सभी में जो सबसे बड़ी चीज विघटन का कारन है एक दूसरे के प्रति इर्ष्या , अहंकार और सा असंतोष परिवार के साथ साथ समाज और देश के लिए घातक हो रहा है| मनुष्य समय के इस परिवर्तन में अपने आप को इतने तेजी से बदलना छह रहा की उसे दूसरे की परवाह नहीं कि उसके स्वंम फायदे के लिए किसी अन्य का नुकशान हो रहा है| और इस सब में दूसरा जो कारण है वो परिवारां में असफलता का मिलना जिसे मनुष्य अपने  को दोषी ना मानते हुए इसके लिए अन्य को दोषी समझता है और फिर दूसरे अवगुण  जैसे इर्ष्या, कलह, और हीन भावना का जन्म होते जा रहा है और हम और तेजी से विघटन की ओर जा रहे है| इसके साथ उंच-नीच का भाव और एक दूसरे को नीच्गा दिखाना, दूसरों के सफलता असे इर्ष्या करना और असफलता पर खुशी मनाना आपसी घमंड और कलह ने सनुक्त परिवार को बिखराव के तरफ ले जा रहा है| 

     इस संभी के लिए हमारी सांसारिक शिक्षा और संस्कार में कमी ही मुख्या कारण है, हमारे परिवार तो तेजी से शिक्षित हो रहे है पान्तु उतने ही तेजी से हमारे संस्कार में कमी हो रही है| इन सभी के लिए हम आप कही ना कही से जिमेद्दर है क्योकि तेजी से आगे बढ़ाने की छह में अपने –पराया के अंतर को बढ़ावा दे रहे है परिवार को अपने तक ही समझ रहे है तो फिर हम दूसरों से कैसे अछे का उम्मीद कर सकते है, ताली तो दोनों हाथ के बजाने से बजेगी, हम जबतक एक दूसरे के शुख-दुःख व् सफलता – असफलता के लिए एक साथ नही निभेंगे तबतक हम सामाजिक विकास न तो अपना कर सकते है ना ही समाज का| ऐसे में किसी देश समाज और परिवार में कैसे खुशहाली और सुख की कामना कैसे  कर सकते है| और जब तक हम खुश और सुख नहीं रहंगे  तबतक ना तो परिवार का निर्माण कर सकते है ना हे समाज का| स्वस्थ परिवार के साथ ही एक स्वस्थ समाज का निर्माण हो सकता है| समाज के विघटन एक और बड़ा कारन हमारी अशिक्षा और आर्थिक तगी भी है, यह बहुत हद तक सच भी है क्योकि हमारा समाज अन्य समाज से अताधिक पिछडा और गरीब रहा है|

       हम अपने रूढवादी परम्परा और कार्य को बदलना नहीं चाहते थे और नाही अपना निवास स्थान और व्यपार जिसके कारण समय ने हमें काफी पीछे कर दिया. हमने समय के अनुसार शिक्षा के महत्व को भी नहीं समझा और जब तक यह बात समझ आती देर हो चकी थी| पर अब पछताने से कुछ नहीं हो सकता है यह भी सच है हमने अब बदलने की चाह कर ली है आज नहीं तो कल हमें इसमे सफलता अवश्य मिलेगी बस सब्र से हमें धीरे धीरे आगे की ओर बढ़ाते रहना है और उस ऊँचाई को भी अवश्य पाना है जिसके लिए हम संकल्पित  है| हमें अपने धार्मिक, संस्कार और परस्पर आपसी प्रेम-समर्पण की भावना के साथ संयुक्त परिवार के अछाईयो  को ग्रहण करते हुए पहले एक स्वस्थ परिवार का निर्माण करना होगा तभी हम एक स्वस्थ समाज की कल्पना कर सकते है| किसी भी परिवार में संबंधो का सामंजस्य एक दूसरे के प्रति आदर भाव, और सबसे बड़ा समर्पण जो प्रेम का भाव देता है वह  एक आदर्श परिवार स्थापित कर सकता है और फिर  एक आदर्श समाज और राष्ट का निर्माण हम कर सकते  है|