बुधवार, 3 जून 2020

सामाजिकता में धार्मिक महत्व


सामाजिकता में धार्मिक महत्व

       प्राचीन सामाजिक संगठनो की संगठनात्मक और सफलता का यदि हम अध्यन और विवेचन करे तो पायेंगे कि समाज की परिकल्पना अत्यन ही प्राचीन था और जब समाज का उदय हों रहा था तब भी हर समाज को अपना एक सामाजिक संरचना थी जोकि आज के सामाजिक परिवेश से कही मजबूत और सफल थी| समाज और सामाजिकता का स्वरुप किसी ना किसी रूप में सभ्यता के विकास और संचरना के लिए हमेशा ही रहे| हम चाहे कितना भी सामाजिक विकास और आधुनिक हों जाय| प्राचीन काल के सामाजिक स्वरुप को हम यदि नजदीक से देखे तो पायंगे कि जो आवश्यकता मनुष्य को तब थी उसमे कोई भी बहुत बदलाव नहीं हुआ है, मनुष्य प्रकृति के रचना एक सजीव और चलायमान प्रानी है उसकी आवश्यकताए अत्यंत है, मनुष्य में सभ्यता का विकास जैसे जैसे होता गया उसकी सोच और विचार के बदलाव ने अवश्य ही समाज के बंधन से मुक्त रहना कहता है पर वह संभव नहीं है क्योकि हम कितना भी आधुनिक बन जाय, जीवन के संस्कार और कार्यों में हमें कही ना कही समाज की आवश्यकता पडती ही है, और हममे से अधिकतर सामाजिक लोग को जीवन के उस पड़ाव में इसकी कमी पडती है और हम समाज के तरफ देखते है, कि यदि अपना भी एक सामाजिक संगठन होना चाहिए| प्राचीन सामाजिक संगठनों ने समाज को एकत्रित और संगठित करने के लिए धर्म और कर्म का बहुत योगदान होता था, क्योकि समाज में धार्मिक कार्यों और मूल्यों की मान्यताये अधिक थी लोग जीवन के हर पहलू में धर्म और पूजा पाठ का सहारा लेते थे, यंहा तक की समाज के सभी कार्य बिना धार्मिक पूजा पाठ के शुरू ही नहीं किये जाते थे| मनुष्य अपने अपने समाज के बनाए गए धार्मिक बंधनों का सहर्ष स्वीकार करते हुए उसका पालना करता था| यंहा तक की समाज में कई बीमारियों में लोग केवल धर्म और कर्म का हेई पालन करते हुए इसका इलाज़ करते थे| समाज के सारे कार्य धर्म के तहत समय और मुहर्त में किये जाते थे| समाज का संगठन उस समय इसी लिए सफल था क्योकि के धार्मिक बंधन और मान्तातये सभी को सामान रूप से स्विक्कर थे| समाज में धीरे धीरे समय और परिस्थिति ने परिवर्तन होते गए और समाज का स्वरुप और कार्य शैली में भी परिवर्तन आते गए| आज के परिवेश में हम जन समाज के लिए एक सामाजिक संगठन की परिकल्पना करते है तो यह कार्य बहुत ही कठिन प्रतीत होता है| 


       पुरातन और आधुनिक सामाजिक संगठन में सबसे बड़ा अंतर समाज के लोगो में विचारों का तेजी से बदलाव और एकरूपता की कमी लगती है जो स्वाभविक भी है पहले हम सामाजिक नेतृत्व करने वाले के प्रति संस्कार के कारण कभी भी सीधे विरोध और असहमति नहीं होती थी| जो भी सामाजिक नियम और कार्य होते थे सभी के लिए सामान था, उच्च-निच, छोटे=बड़े, धनी=निर्धन, शिक्षित – अशिकिषित किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं था इस कारण से प्राचीन सामाजिक संगठन सफल थे| इन सबसे से बड़ी जो बात प्राचीन काल जो सामाजिक ताने बाने को एक दूसरे से बाधे रखती थी वह धार्मिक तथा पूजा पाठ जिसे हम अपने अपने समाज के लिए ईस्वर के रूप में एक स्थान देते हुए उसके प्रति सामाजिक जागरूपता और सामाजिक भय, जिसके कारण हम एक दूसरे से बढे रहते थे| मनुष्य और समाज कितना भी विकास और आधुनिक हों जाय समाज और सामाजिक आवश्यकता कभी भी खत्म नहीं हों सकती है, आज भी हमें इसकी जरूरत दिखाई दे रही है और हम सभी अपने अपने समाज को संगठित और विकसित करने में किसी ना किसी रूप लगे है| उक्त विचार को लिखना उसी कड़ी में हमारा एक प्रयास है कि हम कैसे धार्मिक और पूजा पाठ के पद्धिति को पुन: से अपने सामाजिक स्वरुप को गति प्रदान करने और संगठित करने में प्रयोग करे| यह कोई नयी प्रयोग नहीं है हम सभी समाज में बहुत से सामाजिक संगठन विभिन्न ईस्वर के पूजा पद्धिति को अपना कर एक सामजिक संगठन बना रखे है जो प्राचीन सामाजिक संगठन के सभ्यता पर विकसित है| आप सभी बहुत से संपदाय और सत्संग के नाम से संस्थाए जैसे राधा स्वामी सत्संग समाज, राधा कृष्ण सत्संग, श्री वैष्णव समाज, साईं सत्संग अदि अदि| इन सभी समाज के लोग एक दूसरे के प्रति धार्मिक भावनाओं के कारण एक किये रहते है और वो सभी इस समाज से जुड़े है संगठित है| हमारा भी उद्देश्य अपने समाज को संगठित करने के लिए यही धार्मिक भावना का लाभ उठा कर समाज को एक दूसरे से जोडते हुए संगठित करने का एक प्रयास है| 


       हमें किसी अन्य धार्मिक और रूप की आवश्यकता नहीं है क्योकि हमारा समाज के वंश परम्परा ही धर्म और कर्म पर आधारित है यह तो हम सभी का दुर्भाग्य है की हम आज तक इससे अनिभिज्ञ रहते हुए इसका लाभ नहीं उठा पा रहे है| हमारा सभी का यह प्रयास होना चाहिए जिस समाज के पास महान चंद्र वंश और प्रतापी हैहयवंशी महाराज जो की साक्षात श्री हरी विष्णु के अंश है के वंशज होते हुए भी आज हम बिखरे और असंगठित है| हम एक प्रयास अपने धार्मिक और पूजा – पाठ के स्वरुप को एक बार पुन: से स्थापित करते हुए इसके प्रचार और प्रसार कर श्री सह्स्त्राबहु सत्संग की स्थापना करे और समाज में इस सत्संग के मध्यम से समाज को जोडने का प्रयास करे, अपनी सामाजिक-धार्मिक मान्यताये समाज में चर्चा करे| इस सत्संग की सफलता हम समाज के महिला और बच्चो के बिच में लाकर अधिक सफल हों सकते है क्योकि अपने  समाज में महिलाओ के पास आज भी धर्म से जुड़े भावनाये है जिसे हम प्रयोग कर इसे सफल कर सकते है. इसका लाभ हम एक तरफ महिलाओ के समय के सदुपयोग से पा सकते है दूसरी तरफ सामाजिक बच्चो को अपने धार्मिक एयर इतिहास से आसानी से परिचय करा सकते है जो भविष्य में अपने समाज के एक सामाजिक ब्यक्ति बनगे जिसका लाभ आने वाली पीढ़ी को मिलेगा और हमारा सामाजिक संगठन और मजबूत और शशक्त हों जाएगा| हमें इस सच को स्वीकार करने में कोई भी हिचक नहीं आज हमारे समाज के बच्चे ना तो अपने धार्मिक संस्कार से परिचित है नाही अपने वंश-जाति से जिसले कारण जब वह यह समझाने को तैयार होते है उनकी अभिग्यांता उन्हें उलझन और अनिसिचिता में दाल देती है|


       इसके क्रियान्वन और सफलता के लिए समाज के कुछ ऐसे लोगो की आवश्यकता है जो अपने समाज के धार्मिक, संस्कारिक और इतिहास के ज्ञान के साथ उसे समाज को कैसे पहुचाया जाय पर सहयोग देना चाहते है, जिनमे वाक्-पटुता, चोजो का ज्ञान और सबसे धार्मिक रूप से प्रस्तुत करने की कला हों| हमें निश्चित ही यह विशवास है की ऐसे बहुत से लोग समाज में है जो आपने इतिहास और धार्मिक रूचि के साथ उन्हें प्रचार प्रसार कर सकते है| हम उन सभी सामाजिक ब्यक्तियो से निवेदन करंगे की वह सभी एक प्लेटफार्म पर एकत्र होते हुए इस सहस्त्रबाहु सत्संग की धार्मिक परिकल्पना को साकार करते हुए समाज को संगठित और विकसित करने में सहयोग प्रदान करंगे| इस कार्य के लिए हमारे पास पर्याप्त मात्रा में सामग्री उपलब्ध है जिसके माध्यम से हम इस सामाजिक सत्संग को सफल बना सकते है| इसके आयोजन और क्रियान्वन में बहुत ही कम धन और समय का खर्च है और धार्मिक कार्य के कारण इसमे सभी का सहयोग भी मिलने की उमीद भी है| यह हमरा एक प्रयास है शेष समाज के लोगो पर निर्भर करता है की कितना सहोग इस योजना में मिलता है यह एक रचनात्मक आन्दोलन है| आशा हेई नहीं विश्वास है की आप सभी सामजिक विशेष कर ज्ञानी और धार्मिक आगे बढ़ते हुए इसकी सफलता के लिए संपर्क करंगे|’
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